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१४२. पत्र : सरलादेवी चौधरानीको

सिंहगढ़

३० अप्रैल, १९२०

पूनासे सिंहगढ़ रवाना होनेसे ठीक पहले आपको पेन्सिलसे लिखा एक पत्र' भेजा है। डाक्टरने [मुझसे कहा कि मेरा] स्वास्थ्य इतना खराब हो गया है कि मुझे पैदल ऊपर चढ़ने की कोशिश नहीं करनी चाहिए। लेकिन सुझपर कुछ ऐसा नशा छाया हुआ था कि मैंने सोचा, मैं यह कर सकूँगा। निदान महादेव, दीपक और मैंने चढ़ाई शुरू की। मगर तुम्हें यह जानकर दुःख होगा कि हम आधे फर्लांग भी नहीं चढ़ पाये होंगे कि मेरी बाई जाँघमें असह्य पीड़ा होने लगी और फलतः मुझे कोशिश छोड़ देनी पड़ी। मैं बड़ा शर्मिन्दा हुआ और यह जानकर बेहद दुखी भी कि मेरी ताकत इतनी ज्यादा घट गई है। लेकिन इस बुरी हालत में भी मुझे प्रसन्न ही रहना चाहिए। और मैं प्रयत्न करूंगा कि प्रसन्न रहूँ।

अभी-अभी में दो सपने देखकर उठा हूँ--एक तुम्हारे बारेमें था और दूसरा खिलाफतके बारेमें । तुम दो ही दिनमें लौट आईं, इससे मुझे बड़ी खुशी हुई। मैंने पूछा कि 'इतनी जल्दी कैसे आ गईं ?" तुमने कहा, 'यह तो पंडितजीकी युक्ति थी मुझे अपने पास बुला लेनेकी । जगदीशकी शादी अब भी बहुत दूर ही है। इसलिए मैं वापस आ गई ।' जगनेपर पता चला कि यह तो एक स्वप्न था। फिर में निराश होकर सो गया। लेकिन अब अपने आपको मैंने मुसलमानोंकी एक बड़ी मजलिसके सामने पाया । एक वक्ता आम भाषाके रूपमें हिन्दुस्तानीके उपयोगके बारेमें बोल रहा था। उसने बताया कि बगदादी लोग जो बोली बोलते हैं, वह भी हिन्दुस्तानीकी ही एक शाखा है और इसलिए उसका अध्ययन करना चाहिए । श्रोतृ-समूहमें से किसी दूसरे व्यक्तिने ऐसी बातों में हिन्दुस्तानसे बाहर जानेका विरोध किया। उस समय अब्दुल बारी साहब भी मेरे साथ थे। उन्होंने उस वक्ताका पक्ष लिया। परन्तु श्रोतागण इतने गुस्से में आकर विरोध करने लगे कि वे कुछ बोल न सके । बारी साहबको उसके साथ लोगोंका ऐसा व्यवहार करना अच्छा नहीं लगा। अब मैं लोगोंको इस प्रश्नके पक्ष और विपक्षकी सारी बातें समझा रहा था। प्रसंगवश बात युक्तियों और उपायोंपर आ गई। मैंने किसी भी कीमतपर सत्यपर डटे रहनेकी आवश्यकतापर जोर दिया। इतने में सभामें कुछ गड़बड़ मच गई और मैं जग गया। जगनेके तुरन्त बाद में यह पत्र लिखने बैठ गया।

१. गांधीजी सम्भवतः अपने तारीख २९-४-१९२० के पत्रका उल्लेख कर रहे हैं। वे उसी दिन पूनासे सिंहगढ़के लिए रवाना हुए थे।

२. पंडित राममजदत्त चौधरी।

३. सरलादेवीका ज्येष्ठ पुत्र।