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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

पहनकर आयोजनका गौरव बढ़ाया। उन्हें जितना मान उनकी कीमती रेशमी साड़ियों में मिलता था उतना ही इस खादीकी साड़ीमें भी मिला। इसके बाद तो वे सभाओं आदिमें उन्हीं खादीके वस्त्रोंको पहनकर गईं और जहां-जहाँ में उपस्थित था वहाँ-वहाँ मैंने देखा कि उन वस्त्रोंके कारण स्त्री-पुरुषोंके मनमें उनके प्रति आदर- भाव बढ़ा है। इस तरह मामा-भांजीने, जो कलात्मक अभिरुचिके लिए समस्त हिन्दुस्तान में प्रसिद्ध हैं, कलाकी दृष्टिसे खादीको नापसन्द नहीं किया। इतना ही नहीं बल्कि उन्होंने धनिक समाजमें स्त्रियोंके लिए खादी के पहरावेका प्रवेश कराया। जो महिला अबतक महीनसे-महीन पोशाकें पहनती आई थी, उसने खादीके कपड़े पहने और गर्वका अनुभव किया, उनके मोटे खुरदरेपनकी उसने शर्म नहीं मानी। यह भावना जबतक हमेशा के लिए, कमसे-कम इस संक्रान्ति कालके लिए, एक बड़ी संख्या में हिन्दुस्तानके स्त्री- पुरुषोंके मनमें घर नहीं कर लेती तबतक में स्वदेशी आन्दोलनको विराट् स्वरूप दिए जाने की बात असम्भव मानता हूँ। क्योंकि इस समय यदि लाखों गज कपड़ा तैयार किया जा सकता है तो वह खादीका ही हो सकता है।

खादीका मोटा कपड़ा पहननेवालों पर दया दिखानेका मुझे तो कोई कारण दिखाई नहीं देता। मैं स्वयं अपनेको कला-रुचिविहीन नहीं मानता और खादीमें मुझे बहुत कला दिखाई देती है। अपने और दूसरोंके निजी अनुभवके आधारपर में कह सकता हूँ कि मिलके सूती कपड़ेकी अपेक्षा, जो गर्मी में पसीना आनेसे हमारे बदनसे चिपक जाता है, खादी में पसीना सोखनेकी अधिक शक्ति है। यह टिकाऊ होने के कारण भी अधिक उपयोगी और अधिक अच्छी है। कपड़ेका यदि कोई व्यक्तित्व कहा जा सकता हो तो कह सकते हैं कि खादीका अपना व्यक्तित्व होता है। खादीके उत्पादनकी विभिन्न क्रियाओंमें से किस क्रियाका कर्ता कौन है, यदि हम यह जानना चाहें तो जान सकते हैं। खादीमें थोड़ी-बहुत कारीगरी है। यह बात मिलके कपड़ेपर लागू नहीं होती। जैसे वृक्षके दो पत्ते बिलकुल एक जैसे नहीं होते, वैसे ही हाथके कते, हाथके बुने सूतकी खादीके दो तागे एक समान नहीं होते। जिस तरह कोई चित्रकार बिलकुल एक समान दो चित्र नहीं बनाता, उसी तरह खादी बनानेवाला भी एक जैसे दो थान नहीं बनाता। कुछ लोगोंको यह जानकर दुःख होगा। वे सम्भवतः यह मानते होंगे कि यदि एक ही तरहका, और जो न पहचाना जा सके ऐसा लाखों गज कपड़ा होना अथवा उसका तैयार किया जा सकना ज्यादा अच्छा है। ऐसे मशीनी उत्पादनोंको अधिकांशतः उपयोगी माना जाता है; लेकिन इसे किसी भी दिन कलाका नाम नहीं दिया गया। यदि हम एक ही तरहके पिन न बना सकें अथवा हमें एक ही तरहका कागज न मिले तो हमें कुछ असुविधा हो सकती है। फिर भी इस यंत्र-युगमें आज भी कलाके पारखी स्त्री-पुरुष हाथसे बने कागजको ही अधिक पसन्द करते हैं। मशीनके और हाथके कागजका अन्तर तो सभी देख सकते हैं। हाथके कागजमें अमुक प्रकारका व्यक्तित्व-बनानेवालेकी कला होती है। किन्तु सम्भव है सबकी जरूरतके योग्य हाथका कागज न बनाया जा सके। यहाँ तो मैं इतना ही सिद्ध करना चाहता हूँ कि जिस तरह कागजमें, उसी तरह हाथकी बनी खादीमें जो कला है वह मशीनसे उत्पादित कपड़में नहीं