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खादीके उपयोग

तब स्वदेशीका सच्चा प्रचार कैसे हो? स्वदेशीके प्रेमियोंको इसपर अवश्य विचार करना चाहिए। देशी मिलोंमें बने कपड़ेका अधिक उपयोग करके इसे सम्भव मानना भूल है। हिन्दुस्तानमें हमारी आवश्यकताके योग्य स्वदेशी माल तैयार होता ही नहीं है। इसलिए यदि हम मिलके मालको इस्तेमाल कर सन्तोष कर लें तो उसका मतलब यह हुआ कि आज गरीवके भागमें जो माल आता है उसे हम ले लेते हैं और उसका मूल्य बढ़ा देते हैं। यह तो ठीक नहीं है। इस बातमें भी कोई सन्देह नहीं कि फिर हमें गाँव- गाँवर्म स्वदेशी भंडार खोलनेकी जरूरत पड़ेगी। आज तो स्वदेशी वस्त्र पहननेवालों को सामान्य दूकानोंमें आवश्यक स्वदेशी माल नहीं मिल सकता। इसलिए सही अर्थों में स्वदेशीको प्रोत्साहन वही व्यक्ति देता है जो एक गज ही क्यों न हो, अपने हाथके कते सूतका कपड़ा तैयार करता है। यदि फूंक मारते ही नई मिलें खड़ी की जा सकतीं तो एक तरहकी स्वदेशी आज ही व्यापक बनाई जा सकती। लेकिन मिलोंकी स्थापना करनेमें तो समय चाहिए। फूंक मारते ही हाथसे काता सूत प्राप्त किया जा सकता है, इस बात में कोई सन्देह नहीं है। कोशिश करनेसे कोई भी व्यक्ति एक ही दिन में सूत कातना सीख सकता है।

इस तरह सैकड़ों बहनें सूत कातने लगी हैं, लेकिन उसका बना हुआ कपड़ा पहननेवाले लोग नहीं मिलते। एक वर्ष पहले खादी पर्याप्त मात्रामें नहीं मिलती थी। हाथके कते सूतको प्राप्त करनेमें पहले बहुत कठिनाई होती थी, लेकिन अब एक वर्षके अन्त में मेरे ही पास हाथका कता सूत इतना अधिक आने लगा कि मैं भी उसे तत्काल नहीं ले सकता। खादीका माल मेरे पास बहुत अधिक इकट्ठा हो गया है और उसकी पूरी-पूरी खपत नहीं हो पाती।

खादीके प्रति लोगोंकी अरुचिको कैसे दूर किया जाये, यह प्रश्न उतना ही महत्त्व- पूर्ण है जितना कि नये कपड़ेका उत्पादन। हम एकाएक मोटी खादीके बजाय हाथसे कते सूतका कपड़ा नहीं बना सकते। लाखों बहनें मोटी खादीके योग्य सूत ही कातेंगी।

स्वदेशी आन्दोलनको सबसे ज्यादा लाभ तो श्रीमती सरलादेवीने ही पहुँचाया। उन्होंने राष्ट्रीय सप्ताहके दौरान खादीकी साड़ी और चोली पहननेकी इच्छा प्रकट की। खादीकी साड़ी पहनने के लिए तो मैं अबतक भी किसी बहनको राजी नहीं कर पाया हूँ। इसलिए सरलादेवीकी बात सुनकर पहले तो मुझे लगा कि वे शायद हँसी कर रही हैं। लेकिन उन्होंने तो सच्चे हृदयसे यह बात कही थी; और वह भी वैसी मोटी खादी- की जैसी मैं पहनता हूँ। मैंने उनके लिए खादीके कपड़े बनवाये, और उन्होंने उन्हींको पहनकर सप्ताहको दीप्त किया। उनके मामाश्रीने जब अपनी भांजीको वे मोटे वस्त्र पहने हुए देखा तब उन्होंने भी कहा : 'अगर तुम्हें अटपटा न लगे तो इस पोशाक में कोई खराबी नहीं है। सभी जगह तुम इसे पहनकर जा सकती हो।” कवि- श्रीके सम्मानमें ११ तारीखको श्रीमती पेटिटके यहाँ एक विशाल आयोजन था। उसमें वे खादीकी पोशाक पहनकर जायें अथवा नहीं, यह प्रश्न उनके सामने था। इसपर उन्हें कविश्रीके उपर्युक्त उद्गारोंका ध्यान आया और सरलादेवीने खादीकी पोशाक

१. रवीन्द्रनाथ ठाकुर, जो राष्ट्रीय सप्ताहके दौरान बम्बई में थे।