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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

ऊपर हमने देशी भाषाओंके हितके लिए तीन परस्पर मिले-जुले कार्यक्षेत्र बतलाये हैं। जाहिर है कि जबतक हम इस हितको आगे नहीं बढ़ायेंगे तबतक हम अपने देशके विभिन्न स्त्री-पुरुषों और विभिन्न वर्गों और जनताके बीच निरन्तर चौड़ी होती हुई बौद्धिक और सांस्कृतिक खाईको पाट नहीं सकेंगे। यह भी निश्चित है कि केवल देशी भाषाके माध्यमसे ही अधिकांश लोगोंमें वैचारिक मौलिकता पैदा की जा सकती है।

[अंग्रेजीसे]

यंग इंडिया, २१-४-१९२०

१२७. पत्र: देवदास गांधीको

बम्बई

बुधवार [२१ अप्रैल, १९२०]

आज मैं पंडितजीको विदा करने तथा अन्य कार्यों में व्यस्त रहने के कारण तुम्हें जो पत्र लिखना चाहता था, सो नहीं लिख सका।

बापूके आशीर्वाद

गुजराती पत्र (एस० एन० ७१७०) की फोटो-नकलसे।

१२८. खादीके उपयोग

यद्यपि स्वदेशी आन्दोलन मुझे सन्तोष देने योग्य गतिसे नहीं चल रहा है तथापि यह आन्दोलन धीरे-धीरे आगे बढ़ता जा रहा है। सत्याग्रह सप्ताहके दौरान जनतामें बहुत जागृति आई है। स्वदेशी आन्दोलन भी उसी प्रमाणमें आगे बढ़ा है। मुसलमान भाइयोंने भी स्वदेशी आन्दोलन में अधिक भाग लेना आरम्भ कर दिया है। उनमें एक नया उत्साह उत्पन्न हो गया है। वे स्वदेशीके आन्दोलनको विदेशीके बहिष्कारके रूप में देखते हैं। मैं बता चुका हूँ कि बहिष्कार मिथ्या है। तथापि जिस हदतक बहिष्कारमें स्वदेशीका तत्त्व सन्निविष्ट है उस हदतक तो लाभ होगा ही। कोई व्यक्ति गुस्से में आकर उपवास करता है तो उस उपवासका जो थोड़ा शारीरिक लाभ है वह तो उसे मिलता ही है। उसी तरह बहिष्कारके रूप में गृहीत स्वदेशीका लाभ भी जनताको अवश्य मिलेगा। यदि हम यूरोपके मालको छोड़ जापानका माल लेने लगें तो यह बात अलबत्ता कड़ाही में से निकलकर चूल्हेमें गिरनेके समान होगी।

१. यह पत्र गांधीजीने श्रीमती सरलादेवी चौधरानी द्वारा देवदास गांधीको २१ अप्रैल, १९२० को लिखे पोस्ट कार्डकी पीठपर लिखा था।

२. पंडित रामभजदत्त चौधरी।