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देशी भाषाओंका हित

गवाह हमारी देशी भाषाओंके इतिहाससे अनभिज्ञ प्रतीत होते हैं। एक समय था जब समस्त हिन्दू-दर्शनका एकमात्र माध्यम संस्कृत थी। परन्तु कुछ उत्साही विद्वानोंने अपनी देशी भाषाओंका भण्डार दर्शन-साहित्यके सुन्दर ग्रंथोंसे समृद्ध किया और वे हिन्दू- दर्शनको आम जनताके निकट ले आये। क्या हम संगठन सम्बन्धी आधुनिक कल्पनाओंका सहारा लेकर या उनके बिना ही देशी भाषाओं में विज्ञानके क्षेत्रमें भी वही काम नहीं कर सकते जो किसी समय दर्शनके क्षेत्रमें देशी भाषाओंके उन विद्वानोंने किया था? इन गवाहियोंकी शंकाओंके विरोधमें देशी भाषाओंके पक्षपाती जापानका उदाहरण पेश कर सकते हैं। सेंट पॉल्स कैथिड्रल कालेज, कलकत्ताके प्रिंसिपल रेवरेंड डब्ल्यू० ई० एस० हॉलैंड अपनी गवाहीमें लिखते हैं कि

जापानने अपनी भाषाके प्रयोगसे एक ऐसी शिक्षा प्रणाली खड़ी कर दी है जिसका पाश्चात्य जगत् सम्मान करता है।

'मॉडर्न रिव्यू' के सम्पादक बाबू रामानन्द चटर्जीकी गवाही और भी अधिक विश्वासोत्पादक है। वे कहते हैं:

विश्वविद्यालयको शिक्षाके सभी स्तरोंपर देशी भाषाओंका प्रयोग अपरिहार्य है।इसके विरुद्ध जितनी भी आपत्तियाँ हैं उनका महत्त्व अस्थायी ही है, क्योंकि अत्यन्त विकसित आधुनिक भाषाएँ और साहित्य अपने प्रारम्भिक चरणमें बॅगलासे किसी भी तरह बेहतर नहीं थे। सतत प्रयोगसे ही वे विकसित हुई हैं और हम भी उसी तरह प्रयोगसे ही अपनी भाषाका विकास कर सकेंगे।

इस प्रकार हम पाते हैं कि यद्यपि आज डा० सैडलरके आयोगके समक्ष प्रस्तुत साक्ष्य विश्वविद्यालयकी रक्षाके लिए देशी भाषाका माध्यम अपनाने के पक्ष में नहीं है, फिर भी वह भविष्य में देशी भाषाको माध्यम बनानेके हित में बड़ी आशा बँधाता है। एक समय था जब देशी भाषाके पक्षपातियोंके उद्देश्यको सन्देहकी दृष्टि से देखा जाता था। अब उसे सन्देहकी दृष्टिसे नहीं देखा जाता। इतना ही नहीं सन्देहका स्थान विश्वासने ले लिया है। हालमें दो महत्त्वपूर्ण संस्थाएँ इस उद्देश्यकी पूर्तिके लिए सक्रिय हो गई हैं। पूनाका महिला विश्वविद्यालय और हैदराबादका उस्मानिया विश्वविद्यालय; दोनों ही माध्यमके रूप में केवल देशी भाषाओंका व्यवहार कर रहे हैं। उनकी प्रगति- पर बहुत लोगोंकी आँखें जमी हुई हैं और जैसा कि जस्टिस सर अब्दुल रहीम ठीक ही कहते हैं कि इन संस्थाओंकी सफलता देशी भाषाओंकी समस्याका हल आसान बना देगी। हिन्दू-विश्वविद्यालयके पिछले दीक्षान्त समारोहके दौरान माननीय पंडित मदनमोहन मालवीयने देशी भाषाओंके सभी प्रमुख विद्वानोंको एक सम्मेलनके लिए आमंत्रित किया था। आशा है कि ऐसे सुनियोजित प्रयत्नोंसे देशी भाषाएँ शीघ्र ही शिक्षाके माध्यमके रूप में मान्यता पा लेंगी।

देशी-भाषाओंके हितको प्रान्तोंके वर्तमान विभाजनने भी किसी अन्य चीजसे कम नुकसान नहीं पहुँचाया है। भाषाके आधारपर प्रान्तोंका पुनविभाजन करनेके बाद विश्व- विद्यालयोंकी व्यवस्था एक नये सिरेसे करनी होगी।

१. श्रीमती नाथीबाई दामोदरदास ठाकरसी विश्वविद्यालय।