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देशी भाषाओंका हित

इस समस्यापर विचार करनेवाले प्रत्येक अध्येताके लिए प्रथम विचारणीय तथ्य तो यह है कि भारत में १५० वर्षोंसे ब्रिटिश शासन रहनेपर भी अंग्रेजी एक सर्वसामान्य माध्यमका स्थान ग्रहण नहीं कर सकी। हाँ, इसमें सन्देह नहीं कि एक तरहकी टूटी-फूटी अंग्रेजी हमारे नगरोंमें माध्यम बननमें सफल हो गई प्रतीत होती है। परन्तु यह तथ्य केवल उन्हीं लोगोंको चकित कर सकता है जो बम्बई और कलकत्ता-जैसे बड़े शहरों में हमारी राष्ट्रीय समस्याओंका अध्ययन करनेकी बात करते हैं। और उनकी आबादी ही कितनी है? वह भारतकी कुल आबादीका केवल २.२ प्रतिशत है। दूसरा तथ्य जिसे अंग्रेजीके हिमायती अनदेखा करते हैं यह है कि हमारी देशी भाषाओंमें से बहुतेरी एक दूसरेसे मिलती-जुलती हैं और इसके कारण हिन्दी एक सामान्य माध्यमके रूपमें मद्रास प्रान्तके अलावा सभी प्रान्तोंको अनुकूल पड़ती है। हिन्दीके पक्षमें इस लाभको ध्यान में रखते हुए तथा हमारी वर्तमान राष्ट्रीय चेतनाको देखते हुए हम अंग्रेजीको सर्वसामान्य माध्यमके रूपमें कैसे स्वीकार कर सकते हैं?

इस समस्याका हल ही देशी भाषाओंके भाग्यका निर्णय करेगा। हमारी शिक्षा- प्रणाली में अंग्रेजीको देशी भाषाओंकी तुलना में अस्वाभाविक प्रधानता दी जाती है। अंग्रेजी- के कट्टर हिमायतियोंका कहना है कि 'यथासम्भव छोटीसे-छोटी उम्र में ही' अंग्रेजी- का प्रयोग शिक्षा के माध्यमकी तरह होना चाहिए। यह तर्क इस तथ्यपर आधारित है कि विदेशमें बच्चे छोटी उम्र में ही उस देशकी भाषा बिना कठिनाईके सीख लेते हैं। कलकत्ता विश्वविद्यालय-आयोगने इस तर्कका खण्डन करते हुए कहा है:

विदेशों में तो बच्चेके चारों ओर लोग उसी देशकी भाषा बोलते हैं, पर कक्षाम वह ऐसे लोगों के बीच होता है जो शिक्षकके अलावा सभी, भाषाके नये माध्यम से उतने ही अनभिज्ञ होते हैं जितने कि बच्चे। इस कक्षामें एक व्यक्ति अनेकको पढ़ाता है, न कि अनेक एकको; और यहाँ केवल प्रयोगों द्वारा ही कक्षामें शिक्षण देनेके तरीके निकालने में सफलता मिल सकती है।

आयोगने शिक्षा प्रणाली में देशी भाषाओं के प्रचलनसे होनेवाली “शैक्षणिक [समय इत्यादिकी] बचतके" लाभको मान्यता प्रदान की है। हमने अपने ११ फरवरीके अंक में इस बातकी ओर ध्यान दिलाया है कि कलकत्ता विश्वविद्यालय-आयोगकी सिफारिशें इस सम्बन्धमें एक कदम आगे हैं। इसके बाद लाजिमी कदम यही होगा कि विश्वविद्यालयों में भी माध्यमके रूप में देशी भाषाओंके व्यवहारकी सिफारिश की जाये। सैंडलर आयोगने माध्यमिक स्कूलों और कालेजके विभागोंमें शिक्षाके माध्यमके रूपमें देशी भाषाओंके प्रयोगके लिए मैट्रिकको ही सीमा माना है। भविष्यके लिए एक द्वैभाषिक शिक्षा प्रणालीकी बात उसने अपनी रायके रूप में रखी है। परन्तु उसने यह भी कहा है:

भविष्य के बारेमें हम अभीसे कोई राय नहीं देना चाहते। यह भविष्यवाणी करना हमारा काम नहीं कि आगे चलकर कभी भविष्यमें बॅगलाके ही अधिकतम प्रयोगकी स्वाभाविक अभिलाषा अन्ततः इतनी बलवती हो जाये कि जिसके पणिामस्वरूप हम एक ऐसी सर्व-सामान्य भाषाके माध्यमको छोड़नेके लिए तैयार

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