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ब्रिटिश गियाना और फीजीके शिष्टमण्डल


मेरी रायमें हमें भारतमें उपलब्ध सभी मजदूरोंकी आवश्यकता है। जो मजदूर काम करना चाहे उसके लिए भारतमें इस बातकी काफी गुंजाइश है कि वह अपनी आजीविका ठीकसे कमा सके। हमें अपने उद्योगोंके लिए मजदूरोंकी आवश्यकता है। भारतकी आबादी जरूरतसे ज्यादा नहीं है। किसी ठेठ खेतिहरको अपनी रोजी कमानेके लिए भारतसे बाहर जानेकी आवश्यकता नहीं है। भारतकी गरीबीकी समस्या प्रवाससे हल नहीं हो सकती। उसकी गरीबीके कारण इतने गहरे और व्यापक हैं कि उन्हें प्रवासकी योजनासे, चाहे वह कितनी ही बृहत् क्यों न हो, दूर नहीं किया जा सकता। कुछ हजार लोगोंके हर साल बाहर जानेसे भारतके विशाल जन-समुदायकी घोर गरीबीपर, जो दिन-प्रतिदिन बढ़ती चली जा रही है, कोई असर नहीं हो सकता। मेरी मान्यता तो यह है कि बाहर गये हुए लोग देश लौटकर ज्यादातर मामलोंमें पारिवारिक जीवनको विशृंखल कर देते हैं, लेकिन बदले में इस हानिको प्रतिसन्तुलित कर सके, ऐसा कोई लाभ वे न आम समाजको दे पाते हैं और न इस प्रकार विशृंखलित होनेवाले विशिष्ट परिवारोंको ही। इसलिए यद्यपि मैं किसी खेतिहरके मामलेमें कोई दस्तन्दाजी नहीं करूँगा, लेकिन साथ ही जबतक प्रवाससे कोई स्पष्ट नैतिक लाभ होनेकी सम्भावना न हो तबतक में उसे भारतसे बाहर जानेके लिए प्रोत्साहित भी नहीं करूँगा।

उपनिवेश स्थापित करनेवाले राष्ट्रका जो अर्थ आधुनिक समयमें किया जाता है, उस अर्थमें हम उपनिवेशी राष्ट्र नहीं है। मजदूरोंके पीछे-पीछे उनके देशके उच्चतर वर्गके ऐसे लोग नहीं जाते जो अपनी रोजी कमाना तो चाहेंगे, लेकिन उसे अपने देशभाइयोंकी सेवापर ही आधारित रखेंगे। उनके धार्मिक और सामाजिक बन्धन शिथिल हो जाते हैं। वे जहाँ जाते हैं वहाँ भारतीयताका परिवेश नहीं रहता और इस प्रकार उनपर इस परिवेशके नियमोंका बन्धन भी नहीं रह जाता। अतएव नया प्रवासी एक ऐसे वातावरणमें पहुँच जाता है जो दासताको भावनासे दूषित हो गया है, और जिस प्रणालीके अन्तर्गत उसके पूर्वगामी लोग रह चुके हैं उस प्रणालीकी अनिवार्य अनैतिकतासे पतित होकर वह भी उस वातावरणका शिकार हो जाता है। भावी प्रवासियोंको ऐसे गम्भीर नैतिक खतरोंमें डालना ठीक नहीं है।

दोनों शिष्टमण्डलोंने अनुरोध किया है कि वहाँ और अधिक प्रवासी परिवार भेजना हमारा कर्तव्य है जिससे अनुपाततः भारतीय स्त्रियोंकी संख्यामें जो कमी है, वह पूरी हो सके। दूसरे शब्दों में, हमें इन उपनिवेशोंमें अधिक स्त्रियाँ भेजनी चाहिए; मैं इस विचारसे बिलकुल असहमत हूँ। मैं तो एक भी भारतीय नारीको वहाँ जाकर लज्जाजनक जीवनका शिकार होनेके लिए भेजने में शरीक नहीं होऊँगा। इस बुराईकी जिम्मेदारी उपनिवेश और भारत सरकार दोनोंपर है और उसका एकमात्र उपाय यह है कि अनुपातसे अधिक जितने भी युवक हैं, वे अगर चाहें तो भारत आकर विधिवत् विवाह करें और फिर पत्नियोंको साथ लेकर वापस चले जायें। इस तरहका ऊँचा उठानेवाला कोई आन्दोलन केवल उपनिवेशोंसे ही आरम्भ हो सकता है; और मैं दोनों शिष्टमण्डलोंको सुझाव देता हूँ कि यदि वे अपने बीच रहनेवाले भारतीय प्रवासियोंके नैतिक कल्याणकी सच्ची इच्छा रखते हैं तो वे उपनिवेशोंमें ऐसी संस्थाएँ