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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

गई भूलको हम दबा देना चाहते हैं। मेरी मान्यता है कि जैसे द्वेष हानिकारक है वैसे ही झूठा प्रेम भी हानिकारक है। प्रियजनोंकी भूलोंको उघाड़नेमें भी कोई नुकसान नहीं है, इतना ही नहीं बल्कि उससे लाभ ही है। भूल सुधारनेकी पहली सीढ़ी उसे पहचान- कर उसपर लज्जित होना है। उसे ढककर रखने से उसकी पूरी पहचान नहीं होती तथा जिसने भूल की है वह व्यक्ति लज्जाको छोड़कर उद्धत बन जाता है तथा भूलके गड्ढे में और भी गहरा उतर जाता है। शरीरमें हुए फोड़ेको काट देने अथवा फोड़ने- पर हो जैसे दर्द से छुटकारा मिलता है, उसी तरह भूलको प्रकट करनेसे हो निवृति मिल सकती है।

अन्यायका विरोध न करने की सलाह तो दोनोंमें से किसीने भी नहीं दी अर्थात् आपत्ति केवल विरोध करनेकी पद्धतिपर ही है। मेरी पद्धतिमें अन्यायका विरोध इस हदतक करनेकी बात है कि यदि अन्यायी नहीं सुधरता तो फिर वह सगा बाप ही क्यों न हो, त्याज्य है। उसका त्याग न करनेका अर्थ उसके पापमें भागीदार बनना है। अन्यायका विरोध अन्यायीका त्याग करनेकी सीमातक करनेपर भी प्रेमभावको धक्का नहीं पहुँचता, यह मेरा निजी अनुभव है। अन्याय तो एक भारी भूल है। मित्र भूल करे तो भी उसपर प्रेमभाव रखें, इसमें ही प्रेमकी कसौटी है। भलाईके बदले भलाई करें, इसमें कुछ नवीनता नहीं है। जो व्यक्ति बुराईका बदला भलाईसे दे वही ज्ञानी है, ऐसा शामलभट्टने हमें सिखाया है। गीताकी शिक्षा है कि शत्रु-मित्र के प्रति समभाव रखना चाहिए।

इस तरह हमारे पास राजमार्ग तो एक ही है। यह तय करनेके पहले कि अमुक कार्य अन्यायपूर्ण अथवा दोषपूर्ण है, हमें उसपर भली-भाँति विचार कर लेना चाहिए । अन्यायी जान पड़नेवाले व्यक्तिके विरुद्ध उतावलीमें कोई राय कायम न करें। काफी सोच-विचारके बाद यदि लगे कि निश्चित ही अन्याय किया जा रहा है तो फिर उसका अन्ततक विरोध करें। इसके साथ ही यदि किसी व्यक्तिका दोष निश्चित करने में हमसे भूल हुई हो तो हम उसे तत्क्षण स्वीकार करने और क्षमा माँगनेके लिए तैयार रहें।

खिलाफतके सवालमें मुसलमान न्यायपर हैं, ऐसी मेरी दृढ़ मान्यता है। यदि मुझे उनकी भूल दिखाई पड़े तो मैं तत्काल उनकी मदद करना बन्द कर दूं। वे द्वेष- रहित हैं सो मैं नहीं कहता, लेकिन उनके द्वेषभावके साथ अपने प्रेमभावको मिलाकर उसके वेगको हल्का कर सकता हूँ, ऐसी मेरी मान्यता है। मेरी यह भी मान्यता है कि यदि मेरी पद्धतिको बहुत लोग स्वीकार कर लें तो द्वेषके वेगको सर्वथा रोका जा सकता है। जिनके मनमें द्वेष भरा हुआ है वे भी अन्यायका विरोध तो करेंगे ही और उसमें विवेकसे काम नहीं लेंगे। द्वेषहीन व्यक्तिका भी अन्यायका विरोध किये बिना छुटकारा नहीं है। अन्यायी तो द्वेषी है ही। अन्यायसे पीड़ित व्यक्ति जब प्रतिकार करता है तब वह भी द्वेषी बनता है। अब सवाल बच रहता है कि द्वेषहीनको क्या करना चाहिए । कभी-कभी इसका उत्तर आसानीसे नहीं मिलता। व्यक्तिके चरित्रका निर्माण धर्मसंकट के आनेपर ही होता है । गिर-गिरकर ही वह चढ़ता है । भूल तो हो सकती है;

१. १८ वीं शताब्दीके एक गुजराती कवि।