पृष्ठ:सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय Sampurna Gandhi, vol. 17.pdf/३८३

यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
३५१
खिलाफत

और फिर आगे कोई आदेश प्राप्त होनेतक के लिए निश्चिन्त हो जाइए। अच्छा तो, अब आप सबको प्यार ! ढेर सारी चिट्ठियाँ मेरी राह देख रही हैं।

"प्रसन्न रहो, प्रसन्न रहो; व्यर्थकी चिन्ता मत करो" -- यह भजन मैंने अपने बचपन में स्कूल में ही सीखा था। लेकिन वह आज भी मेरे मनपर उसी तरह अंकित है।

हृदयसे आपका,

मो० क० गांधी

अंग्रेजी (एस० एन० ९५९३) की फोटो-नकलसे।

११५. खिलाफत

पिछले सप्ताह मैंने एक विदुषी बहनके पत्रपर टिप्पणी लिखी थी। उसी लेख में मैंने एक अंग्रेज मित्रके पत्रका उल्लेख भी किया था। पत्र में कहा गया है, "आपको खिलाफतके प्रश्नमें भाग लेते देखकर मुझे आश्चर्य होता है। दक्षिण आफ्रिकाके प्रश्नपर मैंने आपकी सहायता की थी। मैं समझता था कि आप अंग्रेजोंके हितेच्छु हैं और समझ- दार तथा ईमानदार व्यक्ति हैं। लेकिन अब तो आप अंग्रेजोंके विरुद्ध मुसलमानोंको एक करना चाहते हैं और टर्कीका पक्ष लेते हैं। मैं आरमीनियामें रहा हूँ तथा मुसलमानों द्वारा किये गये अत्याचारोंसे अवगत हूँ। मुझे आपकी ईमानदारीके विषय में शंका हो रही है; लेकिन समाचारपत्रों में जो देखता हूँ वह सत्य है, इस बातकी आप जबतक पुष्टि नहीं करेंगे तबतक मैं आपके विरुद्ध कोई धारणा नहीं बनाऊँगा। " विदुषी बहनका पत्र प्रेम भावनासे प्रेरित है, इसलिए उसमें मेरी प्रामाणिकताके सम्बन्धमें कोई शंका नहीं उठाई गई। मित्र-भावके बावजूद अंग्रेज मित्रके पत्रमें मेरी प्रामाणिकताके सम्बन्ध में शंका उठाई गई है; और मेरी प्रवृत्तिके शुभ परिणामके सम्बन्ध तो दोनोंमें शंका व्यक्त की गई है। शंका इन्हीं मित्रोंके मनमें उठी हो, सो बात नहीं है, अन्य मित्रोंने भी इसी आशयके विचार व्यक्त किये हैं।

मैं मानता हूँ कि अन्यायके विरुद्ध कदम उठाते समय अन्यायीके विरुद्ध द्वेषभाव उत्पन्न न होने देना सर्वथा असम्भव है। द्वेष करनेसे द्वेषी अपने आपको हानि पहुँचाता है, इसमें सन्देह नहीं। कोई भी मनुष्य सम्पूर्ण नहीं होता, इसलिए द्वेष करनेवाला दयाका पात्र बन जाता है; क्योंकि अपनी भूलोंके लिए तो वह जगत्के निकट क्षम्य नहीं रहना चाहता है तथापि वह स्वयं जगत्की भूलोंको क्षमा नहीं करता और इस तरह वह क्षमा प्राप्त करनेके अयोग्य ठहरता है। लेकिन चूंकि राग-द्वेष आदि करते-करते हमें उनकी कुठेव पड़ जाती है, हम अनेक बार तो चाहकर भी इन शत्रुओंको अपने से दूर नहीं रख पाते।

तब क्या करना चाहिए? कोई अन्यायीके प्रति राग-द्वेषका अनुभव न करे, क्या इस भयसे हम अन्यायका विरोध न करें? देखा जाता है कि सगे-सम्बन्धियों द्वारा की