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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

उनपर लागू नहीं होती क्योंकि वे किसी अपशब्दका प्रयोग नहीं करते। लेकिन यदि वे अपनी भाषापर ध्यान दें तो वे देखेंगे कि उनके मुँहसे भी 'साला शब्द तो निकल ही जाता होगा। हमें परस्पर एक दूसरेको चौकीदार मानकर भाषाके बुरे शब्दोंको ध्यान और प्रयत्नपूर्वक दूर करना-कराना होगा। जब कभी हम दूसरेको कुत्सित शब्दोंका प्रयोग करते हुए सुनें तभी उसे वैसा करनेसे मना करें तो कुछ सुधार हो सकता है। यह बुरी आदत विद्यार्थियोंमें भी है। बचपनसे ही हम ऐसी भाषा सीखते हैं। पाठशालाओंमें तो शिक्षकोंके माध्यमसे तुरन्त सुधार हो सकता है और यदि विद्यार्थी बहादुर बनें तो वे अपने-अपने घरोंकी इस अस्वच्छताको शीघ्र ही दूर कर सकते हैं।

अंग्रेज मित्रके पत्रपर हम आगामी अंकमें विचार करेंगे।

[गुजरातीसे]

नवजीवन, ११-४-१९२०

१०८. पत्र:'बाम्बे क्रॉनिकलको'

बम्बई

११ अप्रैल, १९२०

महोदय,

पंजाबके प्रति कर्तव्यकी पुकारका बम्बईने उदारतासे उत्तर दिया है, किन्तु फिर भी पर्याप्त उदारतासे नहीं। यह पत्र लिखनेके समयतक जलियाँवाला बाग स्मारक कोषके लिए उसने लगभग तीन लाख रुपया दिया है। क्या बम्बईसे पाँच लाखकी और पूरे बम्बई अहातेसे, जिसमें अहमदाबाद और कराची-जैसे व्यावसायिक केन्द्र हों, दस लाखकी न्यूनतम रकमकी आशा करना बहुत ज्यादा होगा?

आशा तो यही की जाती है कि एक ऐसे कोषमें दान देनेमें, जिसका उद्देश्य अत्याचारोंकी स्मृतिको नहीं, वरन् निर्दोष मृतकोंकी स्मृतिको अमर बनाना है, किसी भी व्यक्तिको किसी प्रकारकी झिझक नहीं होगी। मुझसे कहा जाता है कि यह कृत्य इतना भयानक था कि मृतकोंकी स्मृतिसे उस कृत्यकी याद भी ताजी हुए बिना नहीं रह सकती, और इसलिए यह पूरी घटना ही भुला दी जानी चाहिए। यह कहना कुछ ऐसा ही है जैसे कोई यह कहे कि हमें प्रार्थनाओंमें निर्दोष लोगोंकी बात नहीं सोचनी चाहिए, क्योंकि उससे हेरोदका खयाल आ जानेकी सम्भावना है। अब मैं यहाँ यह कहूँगा कि यद्यपि आपत्ति करनेवाले लोगोंकी यह इच्छा प्रशंसनीय है; कि घृणाको स्थायित्व प्रदान न किया जाये; फिर भी इसमें उन्होंने यह मान बैठनेकी भूल की है कि घृणाकी भावनाको उसके कारणोंको भुलाकर समाप्त किया जा सकता है। घृणाकी भावनाको तो केवल प्रबुद्ध प्रशिक्षणसे ही दूर किया जा सकता है और इस विधिसे घृणाके कारण-रूप कृत्यकी स्मृति बनाये रखकर भी उसे दूर किया जा सकता है।