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१०७. दो पत्र

दो मित्रोंकी ओरसे मुझे दो विचारणीय पत्र प्राप्त हुए हैं। पत्रों में पहला एक विद्वान् और पवित्रहृदया बहनका है। दूसरा इंग्लैंडके एक प्रसिद्ध ईसाई सज्जनका है। बहन लिखती हैं।

उक्त विचार, लिखनेवाली बहनकी पवित्र भावनाओंके परिचायक हैं। उनकी मान्यता सर्वथा उचित है कि सम्राट्के चित्रको बिगाड़ना अथवा फाड़ना एक भारी पाप है। बच्चे यदि बचपन से ही इतनी अविनय और उद्धतता सीखेंगे तो भविष्यमें वे जनताकी सेवा करने लायक नहीं रहेंगे। तनिक भी विचार करनेपर स्पष्ट हो जायेगा कि सम्राट्का अपमान करके हम स्वयं अपना ही अपमान करते हैं तथा रजपर धूल फेंककर हम उसे अपनी ही आँखों में झोंकते हैं। हमें ब्रिटिश राज्य-पद्धति भले ही पसन्द न हो, उसके लिए सम्राट् उत्तरदायी नहीं हैं। उन्हें तो इसकी खबर भी नहीं कि उनके राज्यमें क्या होता है। यह खबर रखना उनका कर्तव्य नहीं है, न उनके पास ऐसी शक्ति है तो फिर उनको दोष देनेसे क्या लाभ? यदि दोष हो भी तो उनका चित्र फाड़नेसे यह दोष कैसे दूर होगा? मुख्य बात तो यह है कि बालकोंके मनमें द्वेषभाव उत्पन्न नहीं होना चाहिए। बच्चोंका मन निर्दोष होना चाहिए। सारा विद्यार्थी जीवन निर्दोष होना चाहिए। विद्यार्थी जीवनमें राग-द्वेष आदिको अवकाश नहीं होना चाहिए। यदि हम ऐसी उच्च स्थितिको प्राप्त नहीं कर सकते तो भी हमें कठोरता, उद्धतता और अविनयसे बचना चाहिए। मैं ऐसी आशा नहीं कर सकता कि काफी बच्चे 'नवजीवन' पढ़ते होंगे; इसलिए मैं उनके माता-पिताको सलाह देता हूँ कि वे इस लेखको बच्चोंसे पढ़वाकर उनकी भूलको सुधारें। शिक्षक भी ऐसा कर सकते हैं। उपर्युक्त बहनके पत्रका दूसरा विषय है जनतामें वीभत्स भाषाका प्रयोग करनेकी बुरी आदत। यह बात इतनी व्यापक है कि इसका उपचार होना मुझे कठिन दीख पड़ता है। अपनी सामर्थ्य-भर मैंने इसे दूर करनेकी कोशिश की है, तथापि मुझे स्वीकार करना होगा कि अथक परिश्रमके बाद ही मैं अपने सम्पर्कमें आनेवाले मुवक्किलों आदि की इस आदतको दूर कर सका हूँ। यह लगभग एक असाध्य रोग है। मुवक्किलोंका यह कहना मुझे याद है कि अनेक बार उनके मुखसे अनजाने ही बुरे शब्द निकल जाते हैं। कार्य कितना ही कठिन क्यों न हो, उसे करनेमें ही हमारा निस्तार है। इसके बारेमें तर्ककी भी आवश्यकता नहीं है। यह राग-द्वेषका भी विषय नहीं है। यह बात बहुत समयसे पड़ी हुई कुटेवको, जिसमें अब जनता कोई दोष नहीं देखती, निकाल बाहर करनेकी है। 'नवजीवन' के पाठकोंमें से बहुतोंको लगेगा कि यह बात

१. यह पत्र यहाँ नहीं दिया गया है। पत्र-लेखिकाने पुस्तकोंमें सम्राट जॉर्ज पंचमके चित्रोंको स्कूलके बच्चों द्वारा विरूप कर दिये जाने तथा कामगरोंमें अश्लील भाषाके व्यापक प्रचारके विरुद्ध शिकायत की थी।