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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

फिर भी हमें तो यही समझना चाहिए कि वह हमारे लिए किया गया है। कलकत्तेका चित्रण करते हुए कविश्री कहते हैं कि गंगा-तटके किनारे-किनारे बड़ी-बड़ी इमारतें बना दी गई हैं और इससे आँखोंको अच्छा लग सकनेवाला प्राकृतिक दृश्य आँखोंको खटकनेवाली चीज बन गई है। होना तो यह चाहिए कि ऐसे स्थानपर हमारा मन प्राकृतिक सौन्दर्यसे अभिभूत हो जाये किन्तु होता यह है कि जब वे कलकत्तेका विचार करके हैं तो उनकी आँखोंसे आँसू बहने लगते हैं।

मेरे जैसे मजदूरके विचारमें तो हमारा काम प्रभुको पहचानना है। प्रभुकी अवज्ञा करके हम धनकी पूजा करने लगे हैं, स्वार्थसाधनमें निरत हो गए हैं।

में साहित्य रसिकोंसे पूछता हूँ कि आपकी कृतिके सहारे मैं शीघ्र ही प्रभुके पास पहुँच सकता हूँ या नहीं? यदि वे मुझे इसका उत्तर "हाँ" में दें तो मैं उनकी कृतिसे बँध जाऊँगा। यदि मैं किसी साहित्यकारकी रचनासे उकता जाता हूँ तो इसमें मेरी बुद्धिका दोष नहीं है,दोष उसकी कलाका है। शक्तिवान साहित्यकारको अपनी कलाको कमसे-कम इतना विकसित तो करना ही चाहिए कि पाठक उसे पढ़नेमें लीन हो जाये। मुझे खेद होता है कि हमारे साहित्यमें यह बात बहुत कम दिखाई देती है। हमारा साहित्य इस समय ऐसा है कि उसमें से जनता एकाध वस्तु भी ग्रहण नहीं कर सकती। उसमें एक भी वस्तु ऐसी नहीं है जिससे वह एक युग, एक वर्ष अथव एक सप्ताहतक भी टिक सके।

अब हम यह देखें कि अनादिकालसे हमारे पास जो ग्रन्थ चले आ रहे हैं उनमें कितना साहित्य है? हमारे प्राचीन धार्मिक ग्रन्थोंसे हमें जितना सन्तोष मिलता है आधुनिक साहित्यसे उतना नहीं मिलता। इस साहित्यके मामूली-से अनुवादमें भी जो रस आ सकता है वह आजके साहित्य में नहीं आ पाता। यदि कोई कहे कि आधुनिक साहित्य में बहुत कुछ है तो हम इसे स्वीकार कर सकते हैं किन्तु इस बहुत कुछ को खोज निकालने में मनुष्य थक जाता है। तुलसीदास और कबीर-जैसा साहित्य हमें किसने दिया है?

जा विधि भावे ता विधि रहिए।

जैसे तैसे हरिको लहिए ॥

ऐसी बात तो आजकल हमें दिखाई ही नहीं देती। अखाके युगमें हमें जो कुछ प्राप्त हुआ, वह अब कहाँ हो सकता है?

बीस वर्ष दक्षिण आफ्रिकाम रहने के बाद मैं भारत आया और मैंने देखा कि हम डरे-डरे जीवन बिता रहे हैं। भयभीत होकर जीनेवाले अपने मनके भावोंको निर्भयतासे प्रकट ही नहीं कर सकते। यदि किसी दबाव में पड़कर हम लिखते भी हैं तो उसमें से कवित्वकी धारा नहीं फूटती और उसकी लहरोंपर सत्य तिरता हुआ नहीं आ पाता। समाचारपत्रोंके सम्बन्धमें भी यही बात लागू होती है। जहाँ सिरपर प्रेस-अधिनियम

१. " सुतर आवे त्यम तुं रहे,

जेम तेम करीने हरिने लहे।"

२. सत्रहवीं शताब्दीके एक गुजराती कवि।