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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

उसे किसी बाह्य बन्धुकी आवश्यकता नहीं होती।" फिर वे बताती हैं कि अगर होती है तो वह बाह्य बन्धु किस तरहका होता है।

जब समय ही अपना नहीं रहा तब किसको ढूंढ़े? इसका विचार करते हुए उन्हें 'भगवद्गीता' याद आई। उसमें उन्हें पुरातन पुरुषोत्तम पुरुषकी उपलब्धि हुई। निर्बलके बल राम ही होते हैं। वियोगके दुःखको काटनेके लिए जब कोई ऐसा शरीरी नहीं मिलता जो आश्वासन दे सके तब दुःखी हृदय "राम" को पुकारता है। जबतक गज ग्राहके साथ लड़ सका तबतक उसे ईश्वरका ध्यान नहीं आया, लेकिन जब भाई साहब थक गये तब वे दासोंके-दासको पुकारने लगे । इसीसे सरलादेवी कहती हैं, "मैं गर्जना करनेवाली, अर्जुनका सखा होनेपर भी जो सर्वशक्तिमान् ईश्वर है उस सारथी-बन्धुका अनन्य भावसे भजन करूँगी । दुर्योधनके समान में उसके पास अपना बल लेकर नहीं जाऊँगी, अपने बलको ताकपर रखकर उसकी शरण जाऊँगी और उसके प्रसादको ग्रहण करके परम शान्ति प्राप्त करूंगी। जैसे पिण्डमें वैसे ब्रह्माण्डमें, जैसे मेरे लिए, वैसे आप सबके लिए। जैसे मेरे दुःखके समय मेरा भगवान् ही मेरा सहारा था उसी तरह वह आपके लिए भी हो - होगा ही। इस ईश्वरकी खोज करते-करते मुझे अपने अन्तरात्मामें झांकना पड़ता है और वहां देखती हूँ तो मुझे मालूम होता है कि में स्वयं ही अपनी सखी हूँ और स्वयं ही अपनी शत्रु । यदि में विश्वात्माकी अनुभूति करना चाहती हूँ तो मुझे अन्तरात्माकी प्रतीति करनी होगी। इसीसे कहा गया है कि “आत्मैव ह्यात्मनो बन्धुः"।।

[गुजरातीसे]

नवजीवन, ४-४-१९२०

९७. पत्र : एस्थर फैरिंगको

रेलगाड़ी में

३० मार्च, १९२०

रानी बिटिया,

मुझे तुम्हारा पत्र अभी-अभी मिला है। उसके लिए मैंने ईश्वरको धन्यवाद दिया। में एक विश्रामस्थलसे आश्रम जा रहा हूँ। दिल्ली छोड़नेके बाद मैं तुम्हें कोई पत्र नहीं लिख सका हूँ। मैंने चार दिनोंतक अच्छा-खासा विश्राम किया। बाद लौटनेकी आशा करता हूँ। तुम डेनमार्क कब जा रही हो?

सस्नेह,

बापू

[अंग्रेजीसे]
मई डियर चाइल्ड

१. भगवद्गीता, ६-५ ।

२. २५ मार्च, १९२० को।

३. गांधीजी २९ अप्रैलको सिंहगढ़ वापस जा सके थे।