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'बन्धु'का अर्थ

अच्छा भी कहा जा सकता है। कहें तो उसे पूरा करके दे दूं और आप उसका अनु- वाद कराना चाहें तो करवा लें। इसके बँगला रूपको मुझे किसी अन्य पत्रमें भेजनेका अधिकार मिलना चाहिए। " मैंने यह स्वीकार किया, अंग्रेजीमें इस आशयकी एक कहावत है कि 'दानकी बछियाके दाँत नहीं देखे जाते।' और फिर मुझे तो उनका ध्यान दूसरी ओर फेरना था।

अब अर्थ समझाना सहल है। हम कालको अजेय कहते हैं। कालको बैरी भी कहा गया है। यही काल जिस समय हमें वियोगादि दुःख नहीं होते अथवा जब हम अनेक सुख-सुविधाओंसे घिरे हुए नहीं होते तब बन्धुका रूप धारण कर लेता है, हमें शान्ति देता है। सरलादेवीको, जब वे वन-प्रदेशमें रहती थीं, इस शान्तिका अनुभव होता था। इस तरह समय रूपी बन्धु उषाकालमें हमसे कहता है, “आओ पलभर शान्त होकर बैठ जाओ और अपने हृदय में गहरे उतरो।" और समयानुसार अपने कर्तव्यका इस तरह पालन करनेसे यदि समय-विहंग प्रसन्नतासे भरकर चहक उठे तो इसमें आश्चर्यकी क्या बात है।"

दोपहरको नींद तो आती है लेकिन समय-बन्धु हमें चेतावनी देता है कि "बाहर जाओ, ध्यानपूर्वक खेतोंको देखो, वे शान्त हैं",लेकिन सोये हुए नहीं हैं। कितनी सम्भावनाएँ, कितनी आशाएँ, कितने गीत और कितनी शोभा वहाँ झिलमिला रही " इस तरह आलस्य न करनेपर हमें मध्याह्नकी शान्ति भी प्राप्त हो गई। अब संध्याकाल हुआ और हमने थकावटका अनुभव किया तो काल-विहंगमने कहा, बस, एक स्थानपर चुपचाप बैठकर देखो, और कुछ न करो।" और करना भी क्या है? जो शान्तचित्त होकर संध्याके समय दिन-भरके कार्योंका लेखा-जोखा करता है और दिनके सुख-चैनसे बीत जानेपर ईश्वरका आभार मानता है उसे सन्ध्याके समय और कुछ करनेको बच ही क्या रहता है? दिनके इस तरह व्यतीत करनेके कारण सरलादेवीको काल बन्धुके रूपमें जान पड़ा।

अब उत्तरार्द्ध शुरू हुआ। घरमें फर्नीचर आदि वस्तुएँ रहें कि स्वयं हम ? "जंगल- को छोड़कर हम शहरमें आ गये हैं। चारों ओर अलमारियाँ, मेजें और कुर्सियाँ " एक छोटी-सी खिड़कीमें "जड़ित आकाशका टुकड़ा" ही निराकार स्वरूपका भान करवानेको रह गया है। "इससे मिलना है। इसे आमन्त्रित करना है। आज एक तो कल दूसरा बैरा भाग गया है। " समय बीतता जाता है, ठहरता नहीं और हर रोज कुछ-न-कुछ बिना किये पड़ा रह जाता है। हमेशा नई मुश्किलें । ऐसी स्थिति काल बैरी है, शान्ति [दाता] नहीं। इसलिए सरलादेवी शंकित होकर पूछ उठती हैं, क्या कालको सदा बन्धु माना जा सकता है, अथ्वा केवल उसी समय बन्धु है जब हृदयको इस रूप में उसका स्वागत करनेका अवकाश हो? "जिस तरह मनको निवृत्त किये बिना बन्धुसे समागम नहीं हो सकता, सम्भवतः उसी तरह बन्धुको, भौतिक वस्तुओंकी निरंकुश धमा-चौकड़ी के बीच भी आना न भाता हो? अवश्य ही ऐसा है, मन जहाँ शान्त और संयमित होता है वहीं सुख होता है। स्वच्छन्दता तो अशान्तिकी निशानी है।

तब लेखिका पूछती है, "कौन है यह अभिजात बन्धु, जिसे आभिजात्य से मुक्त होने पर ही पाया जा सकता है? क्या वह मेरी आन्तरिक सम्पूर्णता है? " [जो] सम्पूर्ण है