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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

हूँ कि जबतक कुछ और बातें न हो जायें तबतक मोतीलालजीको भी नहीं भेजना चाहिए और श्री दासके पास एक बड़ा मुकदमा है जिसके कारण मुझे मालूम हुआ है, वे तीन महीने कहीं जा ही नहीं सकते। मैंने इस विषयपर किसी हदतक पूरी चर्चा यहाँ कर दी है, क्योंकि हो सकता है, बम्बईमें में जितने थोड़े समयतक रहूँगा उसके दौरान हम लोगोंको विस्तारसे बातचीत करनेका समय न मिले।

[अंग्रेजीसे]
द स्टोरी ऑफ माई लाइफ

हृदयसे आपका,

मो० क० गांधी

९६.'बन्धु' का अर्थ

[३० मार्च, १९२० के पूर्व]

२९ फरवरीको प्रकाशित श्रीमती सरलादेवी चौधरानीके 'बन्धु' नामक लेखकी मैंने बहुत प्रशंसा की थी और पाठकोंको उसे बार-बार पढ़ जानेका सुझाव दिया था। उसपर कुछ पाठकोंने मुझे लिखा कि हमने उक्त लेखको पढ़ा और उसपर विचार किया, तथापि हम उसमें से कुछ अर्थ नहीं निकाल सके। उन्होंने मुझे उसका अर्थ स्पष्ट करनेके लिए लिखा है। में अनेक कार्यों में व्यस्त होनेके कारण तुरन्त तो वैसा नहीं कर पाया। अब मुझे सिंहगढ़में तनिक शान्ति मिली है। इस बीच भी मैं इस लेखको तीन-चार बार पढ़ गया, और मुझे जो अर्थ सूझ पड़ा उसे मैं यहाँ प्रस्तुत कर रहा हूँ।

इस लेखका पूर्वार्द्ध उन्होंने, जब वे बोलपुरमें रहती थीं, तब लिखा था। उनके पति जिस समय जेलमें थे उस समय उनकी जो विह्वल दशा थी, उसे मैंने देखा। मैंने देखा कि उन्हें किसी तरह भी शान्ति न थी। ऐसे समय मित्र जितनी सान्त्वना दे सकता है उतनी मैं देनेका प्रयत्न कर रहा था। लेकिन मुझे स्पष्ट दिखाई दे रहा था कि उनका मन अशान्त था। वियोगिनीकी जो दशा होती है, मैं उनकी वैसी दशाका अनुभव कर रहा था। यदि मैं कैदियोंके छूटनेकी बात करता, उन्हें कब छूटना चाहिए इसका हिसाब लगाता तो देखता कि उनका मन बहलता है। ऐसी ही किसी स्थितिमें मैंने एक बार उनसे 'नवजीवन' अथवा 'यंग इंडिया के लिए कुछ लिखनेको कहा। उन्होंने आनाकानी की। “सोच ही नहीं पाती" यह कहकर मुझे टरका दिया। एक दिन उन्होंने कहा 'मैंने बहुत समय पहले कुछ लिखा था वह बँगलामें है और

१. यह लेख स्पष्टत: सिंहगढ़में लिखा गया था। गांधीजी वहाँ २६ से ३० मार्चंतक रहे थे।

२. शान्तिनिकेतन।

३. १९१९ में ।