भोजनकी तुम्हें आवश्यकता हो, माँग लो; जितना विश्राम तुम्हें चाहिए उतना लो, और अपने मन तथा शरीर दोनोंको स्वस्थ रखो।
मुझे पूरे विवरण सहित रोज एक पत्र लिखा करो।
मैं तुम्हारे लिए प्रार्थना करूँगा और अपने मनकी करने की तुम्हारी इस आदतके लिए तुम्हें और भी प्यार करूँगा।
तुम्हारा,
बापू
४. पत्र: मगनलाल गांधीको
लाहौर
रविवार [१ फरवरी, १९२०]
मुझे एस्थरका एक पत्र मिला है। उसी सिलसिलेमें यह दूसरा पत्र तुम्हें लिख रहा हूँ। लिखा उसे भी है। उसने जाकर[२] बड़ी भूल की है। इसे मैं उसकी दुर्बलता मानता हूँ। यही पवित्र आत्माका पतन है। वह स्वतन्त्रताका बहुत ज्यादा दम भरती है। किसीसे सलाह लेने में शर्म मानती है। वह बिना पतवारके जहाज-जैसी है। उसका हृदय विशाल है, लेकिन उसका सदुपयोग करने में वह असमर्थ है।
उसे मैंने लिखा है कि वह तुमको अपना बड़ा भाई समझकर तुम्हारी आज्ञाका पालन करे; तुम्हारे साथ सलाह-मशविरा करे। तुम उससे मिलना और उसकी आवश्यकताओंके बारेमें पूछताछ करना। अगर जरूरत जान पड़े तो वह तुम्हारे साथ भी रह सकती है। सम्भव है कि अकेली बा उसे न सँभाल सके। इस समय में आश्रममें रह सकता तो कितना अच्छा होता। मेरा हृदय आज बहुत व्याकुल है। एस्थरने कोई पाप किया है--ऐसा तो नहीं जान पड़ता; लेकिन मैं यह भी मानता हूँ कि पाप करनेमें कोई देर नहीं लगती; यह मेरा भय भी हो सकता है।
बापूके आशीर्वाद
मूल गुजराती पत्र (सी० डब्ल्यू. ५७८२) से।
सौजन्य: राधाबेन चौधरी