२. पत्र: एस्थर फैरिंगको[१]
लाहौर
रविवार [सुबह, १ फरवरी,][२]१९२०
तुम बिलकुल रानी बिटिया नहीं हो। मुझे तुमने कितने दिनोंसे एक पंक्ति भी लिखकर नहीं भेजी। यों अन्य लोगोंसे मुझे तुम्हारे बारेमें समाचार मिलता रहता है। तुम किसी विवाहमें शामिल हुई थीं यह खबर मुझे कुछ अटपटी लगी। यह किसलिए? अपरिचित व्यक्तियों के बीच तुम कैसे रही होगी? यदि तुम वहाँ कर्त्तव्यभावनासे प्रेरित होकर गई थीं तो तुमने भूल की; ऐसे उत्सवोंमें शरीक होना कदापि तुम्हारा कर्तव्य नहीं है। यदि तुम मन-बलावके खयालसे गई थीं तो मेरी समझमें नहीं आता वहां तुम्हारा वांछित मन-बहलाव क्या हुआ होगा। वह उत्सव था कहाँ? वे लोग कौन थे? क्या वे अंग्रेजी जानते थे? वहाँ तुम्हें भोजनमें क्या मिलता था? तुम्हारे सोनेकी क्या व्यवस्था थी? तुम किसके सुझावपर वहाँ गई थीं? ये सारी बातें मुझे बड़ी ही अजीब लग रही है। मैं नहीं चाहता कि तुम बिना सोचे-समझे ऐसे प्रयोग करो। आज रविवार है, प्रातःकालका समय है और मैं तुम्हारे बारेमें यही सब सोचकर चिन्तित हूँ। मैं जानता हूँ कि चिन्तित होना मूर्खता है। हम सबके ऊपर परमात्मा है; वह अपने भक्तोंकी रक्षा करता है और उनका मार्ग-दर्शन करता है। परन्तु तुमने मुझे अपने आपको मेरी बेटी कहनेका सौभाग्य दिया है। "हे ईसामसीह, अपने हृदयम तूने हमें जगह दी है; हमें अपनी शरणमें ले।"[३]
प्रगाढ़ स्नेह सहित,
तुम्हारा,
बापू