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पंजाबके उपद्रवोंके सम्बन्धमें कांग्रेसकी रिपोर्ट

नहीं थी। कारण, यद्यपि वे पैसा खर्च करनेको तैयार रहते थे, फिर भी कोई प्रतिष्ठित वकील उनके मुकदमे लेनेके लिए तैयार नहीं होता था। सबसे पहली कठिनाई तो ऐसे वकीलोंके सामने यह थी कि न्यायाधिकरणके सामने किस अभियुक्तकी किस दिन पेशी होगी और उसका अभियोग स्पष्ट किया जायेगा,इसका पता ही नहीं रहता था। इस अनिश्चितताके कारण, अच्छे किस्मके वकील ऐसे मुकदमे लेनेसे कतराते थे, क्योंकि वे नहीं जानते थे कि पेशीके दिन उनको समय मिल पायेगा या नहीं।

उनकी दूसरी कठिनाई यह थी कि अधिकांश वकील राजनीतिके क्षेत्रमें सक्रिय रह चुके थे और चूँकि राजनीतिमें भाग लेना तत्कालीन सरकारको आँख-में किरकिरीके समान खटकता था, इसलिए ऐसे वकीलोंको हमेशा खुद भी अपनी गिरफ्तारीका अन्देशा बना रहता था और वे कथित क्रान्तिकारियोंके मुकदमे लेकर उस अशुभ घड़ीको और नजदीक नहीं लाना चाहते थे। उनके सामने तीसरी और सबसे ज्यादा अहमियत रखनेवाली कठिनाई यह थी कि उन दिनों आमतौरपर समझा जाता था कि सरकार ऐसे मुकदमे लेनेवाले वकीलोंको भी राजद्रोही और क्रान्तिकारी मानती है और यह बात अपने-आपमें किसीको भी मुसीबत में डालने के लिए काफी थी। माननीय मियाँ मुहम्मद शफीके कामसे लोगोंकी यह धारणा और भी पुष्ट हो गई। वे अब वाइसरायको कार्यकारिणी परिषद् के सदस्य हैं।' सेठ रामप्रसाद के एक सम्बन्धीने उनको अपने मुकदमेके लिए तय किया था पर उन्होंने कुछ दिन बाद ही मुकदमा लौटा दिया और मुझे बहुत विश्वस्त सूत्रसे मालूम हुआ है कि मुकदमा लौटानेका कारण उन्होंने यह बतलाया कि सरकारके एक किसी ऊँचे अधिकारीने उनको इशारा कर दिया था कि सरकार उनके इस कामको पसन्द नहीं करती। इससे अच्छी तरह कल्पना की जा सकती है कि जो वकील लोग पहलेसे पस्त बैठे थे उनपर इस घटनाका क्या प्रभाव पड़ा होगा।

मेरा अपना अनुभव यह है कि सरकार चाहे इस चीजको नापसन्द करती हो या नहीं पर यह बिलकुल साफ था कि पुलिस जो उन दिनों सर्वेसर्वा थी -- निश्चय ही ऐसे कामको पसन्द नहीं करती थी। मई १९१९ तक तो मेरा सौभाग्य रहा कि मैं खुफिया विभागकी नजरमें नहीं आया। लेकिन १४ मईको लाला हरकिशनलाल वगैरहके मुकदमेके अभियुक्तोंने मुझे अपना वकील बनाया और में 'लाहौरके नेताओंके मुकदमे ' के नामसे प्रसिद्ध उस मुकदमेको दूसरी इजलासमें ले जाने और बाहरका कोई वकील करने की अनुमति प्राप्त करनेके लिए प्रार्थनापत्र लेकर शिमला गया। प्रार्थनापत्र तो मंजूर नहीं ही किया गया, लेकिन मेरा यह सब करना भी शायद खुफिया पुलिसको नहीं भाया,

१. १६ जुलाई, १९२० से।
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