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पंजाबके उपद्रवोंके सम्बन्धमें कांग्रेसकी रिपोर्ट

यन्त्रणा सम्बन्धी बयानोंकी भी जाँच होनी चाहिए। सारी बातें सरकारके सामने हैं। इतने तफसीलके साथ दी गई साक्षीकी अवहेलना नहीं की जा सकती।

यह दिखानेके लिए अब अधिक कुछ कहने की आवश्यकता नहीं है कि जिन मुकदमोंके लिए झूठी गवाही प्राप्त करनेका एक संगठित प्रयत्न किया गया, उनमें गम्भीर और विस्तृत रूपसे न्यायका हनन हुआ होगा, चाहे ये मुकदमे फौजी अदालतोंमें हुए हों या समरी अदालतोंमें या क्षेत्रीय अधिकारियोंके सामने। इन अदालतोंके गठनके बारेमें कुछ कहना अप्रासंगिक नहीं होगा। फौजी अदालतों में तीन-तीन सदस्य होते थे। उन्हें मुकदमेको सरसरी जाँच करके निबटानेकी सत्ता होती थी और मृत्यु दण्डतक देनेका अधिकार था। वे कोई गवाही दर्ज करनेको बाध्य नहीं थे और उनके फैसलोंके विरुद्ध अपील नहीं हो सकती थी। दूसरी ओर समरी अदालतोंमें एक ही सदस्य, आमतौर पर एक मजिस्ट्रेट, होता था और ये अवर न्यायाधिकारवाली अदालतें थीं। ये दो वर्ष की कैद और १,००० रुपयेतक जुर्मानेकी सजा दे सकती थीं। उनके फैसले भी आखिरी होते थे और किसी ऊँची अदालत में उनके विरुद्ध अपील नहीं हो सकती थी। हमने इन अदालतोंमें हुए मुकदमोंका प्रकाशित ब्यौरा पढ़ा है और सरकारी आंकड़े भी देखे हैं और हम इस निर्णयपर पहुँचे हैं कि अधिकांश फैसले गलत हैं। आंकड़ों के अनुसार अमृतसर जिलेमें फौजी अदालतोंके सामने १८८ व्यक्तियोंपर मुकदमा चलाया गया, जिनमें ३ को बरी किया गया। क्षेत्रीय अधिकारियों और समरी अदालतोंके सामने १७३ व्यक्तियोंपर मुकदमा चला, जिनमें से ३२ को बरी किया गया, छोड़ दिया गया या मुक्त किया गया।

शाही घोषणाको[१] दृष्टिमें रखते हुए और यह देखते हुए कि उक्त फौजी अदालतों द्वारा सजा पाये[२] अधिकांश लोगोंको मुक्त कर दिया गया है, इन मुकदमोंके ब्यौरे में जाना आवश्यक नहीं। लेकिन इतना कह देना अनुपयुक्त नहीं होगा कि जिन मामलों में जायदाी जब्तीके साथ-साथ न्यूनतम सजाका विधान था, वे मामले केवल हड़ताल करवाने या रौलट कानूनके विरोध में भाषण देने-जैसे आरोपोंपर आधारित थे। केवल एक मुखबिरकी गवाहीके आधारपर अग्रणी नेताओंपर गम्भीर अपराध करनेके आरोप लगाये गये। खैर, हम फौजी अदालतोंके मुकदमोंकी तब अधिक विस्तृत रूपसे चर्चा करनेकी आशा रखते हैं जब हम लाहौरकी घटनाओंपर आयेंगे। अमृतसरकी घटनाओंका विवेचन हम इतना कहकर समाप्त करेंगे कि अधिकारियोंने डा० किचलू और डा० सत्यपालको देश-निकाला देकर एक ऐसी भारी भूल की जिसे अपराधकी श्रेणी में रखा जायेगा। कमसे-कम इतना तो है ही कि गोली चलाने में अनावश्यक जल्दबाजी की गई। यदि अधिकारियोंने युक्ति और नरमीसे काम लिया होता तो देश निकाले की घटनाके बावजूद भीड़ द्वारा की गई ज्यादतियोंको रोका जा सकता था। भीड़ द्वारा की गई ये ज्यादतियाँ, किसी भी सूरत में बहुत बुरी और निन्दाके योग्य थीं।

  1. जो २३ दिसम्बर, १९१९ को जारी की गई थी और जिसमें राजनैतिक बन्दियोंको क्षमा-दान दिया गया था।
  2. पंजाबके उपद्रवोंके सम्बन्ध में लगभग १,८०० व्यक्तियोंको सजा मिली थी।