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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

गया है कि वे किसी तरहका खतरा नहीं उठाते, या दूसरे शब्दोंमें कहें तो उनकी निगाहमें भारतीयोंकी जानकी कोई कीमत ही नहीं रह गई है।

उच्च न्यायालयके वकील श्री मकबूल महमूद, जो श्री सलारियाके साथ भीड़को समझानेकी कोशिश कर रहे थे, दूसरी बार होनेवाली गोलीबारीके विषयमें कहते हैं:

मैंने और सलारियाने डिप्टी कमिश्नर और अफसरोंसे चिल्लाकर कहा कि वे पीछे हट जायें और गोली न चलायें, क्योंकि हमें अब भी आशा थी कि हम भीड़को वापस ले जा सकेंगे। भीड़में से कुछ लोगोंने सैनिकोंपर लकड़ी और पत्थर फेंके। सैनिकोंने तुरन्त भीड़को बिना आगाह किये या सूचना दिये गोलियोंकी बौछार कर दी। मेरे दायें-बायसे गोलियाँ सनसनाती हुई निकलीं। भीड़ २०-२५ हताहतोंको छोड़कर तितर-बितर हो गई। जब गोलियाँ चलनी बन्द हो गई तब मैंने सैनिकोंके पास जाकर उनसे पूछा कि क्या उनके पास हताहतोंको ले जानेके लिए एम्बुलेंस गाड़ी या प्राथमिक चिकित्साका कोई इन्तजाम है। मैं सहायताके लिए भागकर अस्पताल जाना चाहता था, जो पास ही था। किन्तु सैनिकोंने मुझे जाने नहीं दिया। आखिरको श्री सीमोरने मुझे जानकी इजाजत दे दी...। जब गोली चली उस समय डिप्टी कमिश्नर स्वयं उपस्थित थे। वे जानते थे कि श्री सलारिया और मैं वकील हैं, और यह कोशिश कर रहे थे कि भीड़को हटाकर शहर वापस ले जायें। यह संयोग ही था कि हम दोनों जिन्दा बच गये। मेरा अब भी यही विश्वास है कि यदि अधिकारियोंने कुछ धीरज रखा होता तो हम भीड़को वापस ले जाने में सफल हो जाते। यह दुःखकी बात है कि गोली चलानेका निर्णय करनेसे पहले अधिकारियोंने हताहतोंको ले जानेवाली एम्बुलेंस गाड़ी या प्राथमिक चिकित्साकी कोई व्यवस्था नहीं की। मेरा विश्वास है कि यदि समयपर उचित चिकित्साकी व्यवस्था हो जाती तो कुछ घायलोंको बचाया जा सकता था। कुछ ही गोलियाँ चलने के बाद भीड़ एकदम पीछे हटने लगी, किन्तु जब लोग भागने लगे थे उसके बाद भी गोलियां चलती रहीं। कइयोंकी पीठमें गोलियाँ लगीं। घायलोंमें अधिकतरके कटिभागसे ऊपर, मुँहपर या सिरपर गोलियाँ लगीं। (बयान ५, पृष्ठ ३०-३१)

स्मरण रहे कि भीड़ने अभीतक कोई ज्यादती नहीं की थी, इसलिए उस उतावली, उदासीनता या निर्ममताका कोई कारण नहीं था, जो कि इस गवाह्के अनुसार स्पष्टतः अधिकारियोंने दिखाई।

इसलिए जहाँ एक ओर हम देशनिकालेके दण्ड और गोलीबारीकी भर्त्सना करते हैं और दोनोंको अनुचित मानते हैं, और हताहतोंके लिए एम्बुलेंस गाड़ीकी व्यवस्था न रखना अमानुषिक समझते हैं, वहाँ हम यह भी मानते हैं कि भीड़ द्वारा मनमाने तौरपर निर्दोष व्यक्तियोंकी हत्या और सम्पत्तिका विनाश किसी तरह उचित नहीं