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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय


अपरावी अर्थात् साधारण कानून-उल्लंघनकर्ता कानूनको चोरी-छिपे तोड़ता है, और उसके दण्डसे बचनेकी कोशिश करता है। किन्तु सविनय अवज्ञा करनेवाला ऐसा नहीं करता। वह जिस राज्य में रहता है उसके कानूनोंका सदैव पालन करता है--सो किसी दण्डके भयसे नहीं, बल्कि इसलिए करता है कि वह उन कानूनोंको समाजके कल्याणके लिए अच्छा समझता है। लेकिन कुछ अवसर आते है, और ऐसे अवसर बहुत ही कम आते हैं, जब वह कुछ कानूनोंको इतना अन्यायपूर्ण मानता है कि उनका पालन करना उसके लिए सर्वथा असम्मानकी बात हो जाती है। ऐसे मौकेपर वह खुलेआम उन कानूनोंकी सविनय अवज्ञा करता है और जो भी दण्ड मिले उसे शान्तिपूर्वक सहन कर लेता है। और कानून बनानेवालेके कार्योंके विरुद्ध अपना विरोध प्रकट करनेके हेतु वह ऐसे अन्य कानूनोंकी अवज्ञा करके, जिन्हें भंग करना अनैतिक आचरण नहीं है, राज्यके साथ असहयोग कर सकनेको स्वतन्त्र है। मेरी रायमें सत्याग्रहका व्यावहारिक पक्ष और उसका सौन्दर्य अत्यन्त गरिमामय है और इसका सिद्धान्त इतना सरल है कि इसकी सीख बच्चोंको भी दी जा सकती है। मैंने हजारों स्त्री, पुरुष और बच्चोंको, जिन्हें आमतौरपर गिरमिटिया भारतीय कहा जाता है, सत्याग्रहकी सीख दी और उसके परिणाम बहुत ही अच्छे निकले।

जब रौलट विधेयक प्रकाशित किये गये थे, उस समय मैंने अनुभव किया कि वे मानव-स्वतन्त्रतापर इतने अधिक बन्धन लगाते हैं कि उनका ज्यादासे-ज्यादा विरोध किया जाना चाहिए। मैंने यह भी देखा कि भारतीयोंमें विधेयकोंके प्रति विरोध-भावना सर्वव्यापी है। संवैधानिक परम्परा और पूर्व दृष्टान्तोंसे निर्देशित होनेवाली भारत सरकार -जैसी किसी सरकारकी तो बात ही क्या, मेरा तो मत है कि कितनी ही निरंकुश सरकार हो, उसे ऐसे कानून बनानेका अधिकार नहीं है जो देशको सम्पूर्ण जनताके विरुद्ध पड़ते हों। मैंने यह भी अनुभव किया कि इस बातको लेकर जो आन्दोलन फूट पड़नेवाला है, उसे यदि विफल नहीं होना है, और हिंसात्मक स्वरूप ग्रहण करनेसे बचाना है, तो उसे एक सुनिश्चित दिशा देना जरूरी होगा।

इसलिए मैंने देशके सामने सत्याग्रहको स्वीकार करने का प्रस्ताव रखा, और ऐसा करते समय मैंने उसके सविनय प्रतिरोधके पहलूकी ओर विशेष ध्यान दिलाया। और चूँकि यह एक बिलकुल अन्तर्मुखी और शुद्धिकारक आन्दोलन है, इसलिए मैंने सुझाव दिया कि ६ अप्रैलको एक दिनका उपवास रखा जाये, प्रार्थना की जाये और सब काम-काज बन्द रखा जाये। भारतके सभी भागोंमें, यहांतक कि छोटे-छोटे गांवोंमें भी, इस सुझावपर शानदार तरीके से अमल किया गया, हालाँकि न तो इसका कोई संगठन ही किया गया था और न पहलेसे कोई बड़ी तैयारी ही की गई थी। इसका विचार जैसे ही मेरे मन में आया, मैंने उसे जनताके सामने रख दिया था। ६ अप्रैल, [१९१९] को जनताकी ओरसे कोई हिंसा नहीं हुई और न पुलिसके साथ कोई उल्लेखनीय संघर्ष ही हुआ।