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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

परिवारके अन्य लोगोंसे सहमत हो जाता है और इस प्रकार दूसरोंकी शान्तिमें बाधा डाले बिना स्वयं भी ज्यादासे-ज्यादा शान्ति पानेकी कोशिश करता है। इस प्रकार, वह चाहे प्रतिरोध करे या किसी स्थितिको स्वीकार कर ले, उसकी कार्यनीति परिवारके सभी सदस्योंका कल्याण करनेकी ही होती है। प्रेमका यही नियम सम्पूर्ण सभ्य संसारमें बहुत-बड़ी सीभातक पारिवारिक सम्बन्धोंका नियमन करता है।

मैं अनुभव करता हूँ कि जबतक राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय मामलोंमें, दूसरे शब्दोंमें कहें तो राजनीतिक क्षेत्रमें, इस पारिवारिक नियमको निश्चित रूपसे मान्य और स्वीकार नहीं किया जाता तबतक विभिन्न राष्ट्र यथार्थमें एक नहीं हो सकते और न उनके कार्य और गतिविधियाँ सम्पूर्ण मानवताके लिए समान रूपसे हितकारी ही हो सकती हैं। जिस हदतक कोई राष्ट्र इस [पारिवारिक] नियमका पालन करता है, उसी हदतक उसे सभ्य कहा जा सकता है।

यह प्रेमका नियम और कुछ नहीं, सत्यका ही एक नियम है। बिना सत्यके प्रेम नहीं हो सकता। बिना सत्यका प्रेम लगाव हो सकता है, उदाहरणार्थ दूसरे राष्ट्रोंको नुकसान पहुँचाकर अपने राष्ट्रसे लगाव रखना; या फिर वह मोह है, जैसा कि किसी युवकका किसी युवतीके प्रति होता है, या फिर ऐसा प्रेम विवेक-शून्य और अन्धा होता है, जैसा कि अज्ञानी माँ-बापका अपनी सन्तानके लिए होता है। सच्चा प्रेम शरीरसे ऊपर है और उसमें पक्षपातको कोई गुंजाइश नहीं होती। इसीलिए सत्याग्रहकी एक सिक्केसे तुलना की गई है जिसके सीधी ओर प्रेम लिखा है और उल्टी ओर सत्य। यह सिक्का सभी जगह चलता है और इसकी कीमत आँकी नहीं जा सकती।

सत्याग्रह आत्मनिर्भर है। इसका प्रयोग करनेसे पहले विरोधीकी सहमति लेना जरूरी नहीं है। सच तो यह है कि प्रतिपक्षी जब प्रतिरोध करता है उस समय यह सबसे अधिक निखरता है। इसीलिए यह दुर्दमनीय है। सत्याग्रही जानता ही नहीं कि पराजय क्या चीज है, क्योंकि वह सत्यके लिए संघर्ष करते हुए कभी थकता नहीं। इस संघर्ष में मृत्यु मुक्ति-रूप है और जेलखाना स्वतन्त्रताके द्वार जैसा।

इसे आत्मबल भी कहा जाता है, क्योंकि यदि सत्याग्रही यह विश्वास लेकर चलता हो कि मृत्युका मतलब संघर्षका अन्त नहीं, बल्कि उसकी चरम परिणति है, तो उसके लिए अपने अन्दर आत्माके अस्तित्वको स्वीकार करना आवश्यक है। शरीर तो आत्माभिव्यक्तिका एक साधनमात्र है; और सत्याग्रही जिस सत्यको लेकर चलता है, विपक्षी द्वारा उस सत्यके दर्शन कर सकने में यदि यह शरीर आड़े आये तो वह सहर्ष उसका त्याग कर देता है। वह अपने शरीरका परित्याग इस निश्चित विश्वासके साथ करता है कि यदि किसी बातसे उसके विरोधीके विचार बदल सकते हैं तो सहर्ष अपने शरीरका बलिदान करनेसे तो ऐसा अवश्य ही होगा। और चूँकि वह जानता है कि शरीरका नाश हो