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पंजाबके उपद्रवोंके सम्बन्धमें कांग्रेसकी रिपोर्ट

धीरज और सहानुभूतिके द्वारा गलत रास्तेसे विमुख करना चाहिए। कारण कि जो चीज एक व्यक्तिको सही लगती है वही दूसरे व्यक्तिको गलत लग सकती है। और धीरजका मतलब है स्वयं कष्ट सहना। इस प्रकार सत्याग्रह-सिद्धान्तने जो अर्थ ग्रहण किया वह है, अपने विरोधीको नहीं बल्कि स्वयंको कष्ट देकर सत्यको प्रतिष्ठित करना।

अनाक्रामक प्रतिरोध और सत्याग्रहमें वैसा ही अन्तर है जैसा दक्षिणी ध्रुव और उत्तरी ध्रुवमें। अनाक्रामक प्रतिरोधकी परिकल्पना कमजोर लोगोंके अस्त्रके रूप में की गई है, और इसमें अपने उद्देश्यकी प्राप्तिके लिए शरीरबल या हिंसा वजित नहीं है। इसके विपरीत सत्याग्रहकी कल्पना सशक्ततम व्यक्तिके अस्त्रके रूप में की गई है और इसमें किसी भी प्रकारको हिंसाके लिए कोई स्थान नहीं है।

जब डैनियलने मीडों और पारसियोंके ऐसे कानूनोंकी अवज्ञा की जो उसकी अन्तरात्माकी आवाजके खिलाफ थे, और इस अवज्ञाके परिणामस्वरूप मिले दण्डको सर झुकाकर सह लिया, उस समय वह विशुद्धतम ढंगका सत्याग्रह कर रहा था। सुकरात जिस चीजको सही मानता था, एथेंसके नौजवानोंको उसकी सीख देनेसे वह कभी बाज नहीं आया, और इसके लिए उसे जो सजा दी गई उसे उसने बहादुरीके साथ झेल लिया। प्रह्लादने अपने पिताके आदेशोंको नहीं माना, क्योंकि वह उन्हें अपनी आत्माके विरुद्ध मानता था। उसने बिना शिकायत किये और खुशी-खुशी अपने पिता द्वारा दी गई यन्त्रणाएँ सह ली। कहते हैं, मीराबाईने भी अपनी आत्माको आवाजपर अपने पतिको नाराज कर दिया था, उनसे अलग रहने में ही सन्तोष माना और पतिकी इच्छाके आगे झुकनेके लिए उसे जो भी कष्ट दिये गये बताये जाते हैं, उन्हें निर्विकार मनसे शान्तिपूर्वक सहन किया। प्रह्लाद और मीराबाई, इन दोनोंने ही सत्याग्रहका पालन किया। यह ध्यान देनेकी बात है कि न तो डैनियलकी और न सुकरातकी, न प्रह्लादकी और न मीराबाईकी अपने उत्पीड़कोंके प्रति कोई दुर्भावना रही थी। आज डैनियल और सुकरात अपने-अपने राज्यके आदर्श नागरिक माने जाते हैं, तथा प्रह्लादको आदर्श पुत्र और मीराको आदर्श पत्नी माना जाता है।

सत्याग्रहका यह सिद्धान्त नया नहीं है; यह तो महज घरेलू नियमोंको राजनीतिक जीवनपर लागू करना है। पारिवारिक झगड़े और मतभेद आमतौर पर प्रेमके नियमके अनुसार निपटा दिये जाते हैं। परिवारके पीड़ित सदस्यके मनमें अन्य सदस्योंके प्रति इतना आदर होता है कि जो लोग उससे भिन्न मत रखते हैं, उनके प्रति बिना क्रोध किये या बदलेके भावसे बिना कुछ किये, वह अपने सिद्धान्तोंके लिए पीड़ा सहन कर लेता है। और चूँकि क्रोधका शमन और स्वयं कष्ट-सहनकी विधि अत्यन्त कठिन है, अत: वह छोटी-छोटी बातोंको सिद्धान्तका जामा नहीं पहनाता बल्कि सभी मामूली बातोंपर खुशीके साथ