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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

अत: इसमें आश्चर्यकी कोई बात नहीं, अगर सर माइकेल ओ'डायरको मजबूर होकर इस तथ्यका निन्दापूर्वक उल्लेख करना पड़ा कि फौजमें भरती होनेवालोंमें से बहुत-से लोग अपने डिपो या यूनिटोंको छोड़कर भाग गये, और दरअसल बहुत थोड़े-से ही लोग थे जिन्होंने मैदान में दुश्मनका सामना किया।

अम्बाला डिवीजनके कमिश्नरने रिपोर्ट दी कि:

कोटा पूरा करनेकी दृष्टिसे लोगोंने एक और तरीका अपनाया जो किसी हदतक स्वाभाविक ही था। उन्होंने नौजवानोंको फौजमें नाम लिखानेका प्रलोभन देनेके उद्देश्यसे उन्हें बड़ी-बड़ी रकमें दी। ऐसे एक-एक नौजवानको ५०० या १,००० रुपयेतक दिये गये।

एक दूसरा प्रचलित तरीका यह था कि माने हुए बुरे आचरणके लोगोंको मजबूर किया जाता था कि वे या तो फौजमें नाम लिखायें या भारतीय दण्ड विधानके खण्ड १०९ या ११० के अन्तर्गत सदाचरणकी जमानत दें। १९१७ के फौजदारी न्याय-प्रशासनके बारे में प्रकाशित रिपोर्ट में कहा गया है :

जिला मजिस्ट्रेटोंने इस वर्षके दौरान काफी समय भरतीके कामको दिया। भारतीय दण्ड विधानके खण्ड ११०के अन्तर्गत आमतौरपर जितने लोगोंसे मुचलका लिया जाता रहा है, उस संख्यामें भारी कमीका मुख्य कारण सेनामें बड़े पैमानेपर भरती है।

एक सरकारी अधिकारी करनाल जिलेके यारा नामक गाँवमें गया। वहाँ कई लड़कोंको स्वेच्छासे फौज में भरती होने के लिए राजी कर लिया गया। उनमें से एक लड़केके पिताने मजिस्ट्रेटसे बहुत मिन्नत की कि उसका एकलौता लड़का उससे न छीना जाये। मजिस्ट्रेटने उसकी एक न सुनी, इसपर उत्तेजना फैली और हाथापाई हुई। भारत रक्षा अधिनियमके अन्तर्गत कुछ लोगोंपर मुकदमा चलाया गया और उनमें से पाँचको सजा हो गई। अपील करनेपर सजा रद कर दी गई। अदालतके फैसलेसे लगता है कि छोटी अदालतने अपना निर्णय जिला मजिस्ट्रेट श्री हैमिल्टनके स्पष्ट आदेशोंके अनुसार किया था। अपील अदालतने उक्त निर्णयपर अपनी सम्मति देते हुए कहा:

जिला मजिस्ट्रेट द्वारा समय-समयपर जारी किये आदेशोंसे साफ प्रकट होता है कि यदि इन अपीलकर्ताओंने अपने निकट-सम्बन्धियोंमें से फौजके लिए रंगरूट दिये होते, अथवा वे स्वयं फौजमें भरती होनेके योग्य होते, तो उन्हें छोड़ दिया गया होता--बशर्ते कि उस गाँवसे शुरूमें जो २० रंगरूट देनेको कहा गया था, उतने रंगरूट उन्होंने दे दिये होते।

सच तो यह है कि २० रंगरूट तो दिये ही गये थे, लेकिन मजिस्ट्रेट तो स्वयं उन अभियुक्तोंसे ही बीस रंगरूट चाहता था।

गुजराँवालामें भरतीके परिणामोंसे सन्तुष्ट न होनेके कारण १९१७ में सर माइकेल ओ'डायरने वहाँके लोगोंको उनकी गफलतके लिए काफी फटकारा। अब यह संयोग