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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

अपने विवेकहीन और दुष्टतापूर्ण हस्तक्षेपसे वे मुश्किल बढ़ा अवश्य सकते हैं, और कभी-कभी ऐसा करते भी हैं।

स्वशासनके पक्षमें तर्क देते हुए अक्सर कहा जाता है कि देशी रियासतोंमें मजहबी दंगे बिलकुल नहीं होते। इसके अनेक कारण हैं, लेकिन एक प्रधान कारण यह है कि वहाँ पेशेवर राजनीतिज्ञोंका कोई अस्तित्व ही नहीं है, और यदि हो भी तो उन्हें हस्तक्षेप नहीं करने दिया जाता। रियासतोंमें होनेवाले मजहबी दंगोंमें से एक भयंकर दंगा हाल ही में भोपालमें शिया और सुन्नियोंके बीच हुआ था, और इस दंगेको भड़कानेमें मुख्य हाथ, अपना प्रचार करने के लिए उत्सुक, बम्बईके एक मुसलमान वकीलका था। पंजाबमें हालांकि साम्प्रदायिक भावनाएँ अक्सर बहुत उग्र हो जाती है, लेकिन दंगा या खून-खराबी होनेकी स्थिति शायद ही कभी आती है। इसकी वजह सिर्फ यह है कि स्थानीय अधिकारी जानते हैं कि आपसमें सुलह-समझौता करानेके लिए किन लोगोंपर निर्भर किया जाये। ये लोग राजनीतिज्ञ नहीं है, बल्कि अपने हल्के में प्रभाव रखनेवाले शान्त प्रवृत्तिके लोग हैं।

यहाँ हम सर माइकेल ओ'डायरको यह सिद्ध करनेकी कोशिश करते हुए देखते है कि सम्पूर्ण भारतके राजनीतिक-वर्गके लोग व्यावहारिक दृष्टिसे बिलकुल फिजूल लोग हैं।

यह तो रहा शिक्षित-वर्गके प्रति सर माइकेलका दृष्टिकोण। यद्यपि उन्होंने अन्य वर्गोंको स्नेहकी दृष्टि से देखनेका दावा किया है, किन्तु फौजमें भरती और युद्धकोषमें चन्दा लेने के जो तरीके उन्होंने अपनाये हैं उनके कारण अन्य सभी वर्ग भी उनसे और उनकी सरकारसे नाराज हो गये। तब भी इस प्रश्नकी चर्चा हम काफी झिझकके साथ कर रहे हैं। युद्धके दौरान रंगरूटोंकी भरती और धन जमा करनेके लिए जोरदार अभियान चलानेकी जो आवश्यकता थी, उसे हम समझते हैं। हम यह भी अनुभव करते हैं कि यदि भारत साम्राज्यके अन्य सदस्य देशों के साथ बराबरकी हिस्सेदारीका दावा करता है तो उसे साम्राज्यपर पड़नेवाले बोझमें अपना हिस्सा भी बँटाना ही पड़ेगा। इसलिए यदि हमारे लिए सम्भव होता तो हम जन और धन जुटानेके लिए अपनाये गये तरीकोंकी कोई चर्चा यहाँ न करते। लेकिन हड़तालकी अपीलपर प्रबुद्ध वर्गों और साधारण जनताने सहज ही जैसा सहयोग दिया, और फिर पंजाबमें भीड़के क्रोधका जैसा अप्रत्याशित प्रदर्शन हुआ, उसको समझने और उसका सही मूल्यांकन करने के लिए उस अपूर्व प्रदर्शन और पंजाबमें हिंसाके विस्फोटकी मीमांसा करना जरूरी है। कारण, हमारा खयाल है कि रौलट अधिनियमके बारेमें चाहे कितना ही गलत प्रचार किया जाता--अर्थात् अगर मान लें कि ऐसा प्रचार किया गया था तो--सम्भवतया उसकी वजहसे तो जनसाधारण प्रदर्शन आदिमें वैसा उत्साहपूर्ण सहयोग न दे सकता और न इतने सारे लोग हिंसात्मक कार्रवाईमें शामिल साथ ही साम्राज्यके प्रति कैसी ही प्रबल कर्तव्य-भावना हो, उसके चलते वैयक्तिक सकते।