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पंजाबके उपद्रवोंके सम्बन्धमें कांग्रेसकी रिपोर्ट

तौरपर सत्ता और पद पानेको उत्सुक है, तब वैसी स्थितिमें यदि हम अपने दायित्वके प्रति ईमानदार हैं तो हमें चाहिए कि भले ही राजनीतिज्ञ लोग कितना ही आग्रहपूर्वक शोर मचायें, और कितनी ही परेशानियाँ पैदा करें, हम मूक जनताके हितोंको ही सर्वोपरि रखें और माने। यहाँ मैं बर्ककी यह चेतावनी उद्धृत करना चाहूँगा कि "जब ब्रिटेन-रूपी शाहबलूतके पेड़की छायामें शान्तिपूर्वक जुगाली करनेवाले हजारों मवेशी आरामसे बैठे हों, उस समय घासमें छिपी आधा दर्जन झिल्लियोंकी लगातार आवाजसे अगर मैदान गूँज उठे, तो कृपया यह न मान बैठिए कि मैदान में इन शोर मचानेवाले प्राणियोंके अलावा कोई है ही नहीं।

इस उद्धरणमें छिपे भयानक अपमानके बारे में हमें कुछ कहने की कोई जरूरत नहीं है। उसी ज्ञापन में तथ्योंकी सर्वथा उपेक्षा करते हुए उन्होंने आगे यह दिखाया है कि शिक्षित-वर्गों और जनसाधारणमें हितोंकी कोई समानता नहीं है, और जनता शिक्षित नेताओंका साथ छोड़ने लगी है। स्वायत्त शासनके लिए श्रीमती बेसेंट, श्री तिलक, श्री जिन्ना, माननीय पंडित मदनमोहन मालवीय और राजा महमूदाबाद द्वारा किये जानेवाले प्रयत्नोंको वे बहुत ही तुच्छ बतलाते हैं। ब्राह्मणेतर वर्गोंके आन्दोलनको उन्होंने बहुत बढ़ा-चढ़ाकर दिखाया है, अखिल भारतीय मुस्लिम लीगको एक महत्त्वहीन संगठन बताया है, सर्वश्री तिलक और पालके विरुद्ध जारी किये गये अपने निषेधात्मक आदेशके बावजूद पंजाबमें होनेवाली राजनीतिक जन-जागृतिको भर्त्सना की है, और फिर बड़ी उदारतापूर्वक कहा है कि भावी प्रगतिका विचार करते समय "न केवल राजनीतिक वोंका, बल्कि भारतीय जनताका भी ध्यान रखना चाहिए", और अपने ज्ञापनके इस अंशके अन्त में वे कहते हैं:

मैंने इस सिद्धान्तपर इतना बल देना इसलिए जरूरी समझा क्योंकि मैंने देखा कि भारत सरकारके प्रस्तावोंमें इसको समुचित महत्त्व नहीं दिया गया है। शायद ऐसा मान लिया गया है कि यह सिद्धान्त तो रहेगा ही। लेकिन ऐसे गम्भीर दायित्वकी बात अप्रकट नहीं रखनी चाहिए। उसके अभावमें ये प्रस्ताव ऐसे लगते है जैसे विचारणीय प्रश्न केवल यह हो कि शिक्षित-वर्गोंके एक अमुक भागकी महत्त्वाकांक्षाओंको किस प्रकार सन्तुष्ट किया जाये। शिक्षित-वर्ग निःसन्देह जनताका प्रतिनिधित्व करनेका दावा करते हैं, लेकिन पिछले कुछ महीनोंमें जोकुछ प्रकाशमें आया है उसे देखने के बाद शायद इस दावेके खोखलेपनका भण्डाफोड़ करनेकी ज़रूरत नहीं रह जाती। किसी भी व्यावहारिक कसौटी--धार्मिक दंगोंकी रोक-थाम, विभिन्न दलोंके पारस्परिक मतभेदोंका निपटारा, फौज या सुरक्षा-दलके लिए रंगरूटोंकी भरती--पर कसकर देख लीजिए और आप पायेंगे कि जब-कभी इनमें से कोई भी प्रश्न सामने आता है उस समय राजनीतिज्ञ लोग पीछे हट जाते हैं। भला करनेकी उनकी ताकत सामान्यतः शून्य है, लेकिन