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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

नहीं। लेकिन सर माइकेल ऐसे आदमी नहीं है। उसी वर्ष ३० अक्तूबरको--क्षमाप्रार्थना करनेके करीब एक माह बाद--निम्नलिखित शब्दों में उन्होंने लगभग वही बातें फिर दोहराई:

पिछले महीने केन्द्रीय विधान परिषद्में अपने एक भाषणमें मैंने इस लड़ाईमें पंजाबकी महत्त्वपूर्ण सेवाओंका जिन जोरदार शब्दोंमें उल्लेख किया वह कुछ लोगोंको अखरा। ऐसा इसलिए कि मैंने अन्य प्रान्तों और युद्धमें उनके सहयोगके प्रयासकी तुलना पंजाबसे कर दी थी। में अब भी अपनी इस बातपर दृढ़ हूँ कि पंजाबने साम्राज्यके लिए धन-जन, साधन-सामग्री देकर उसकी जो निष्ठापूर्ण सेवा की है वह लासानी है, और इसके बलपर वह सरकारको ओरसे विशेष कृपा प्राप्त करनेका अधिकारी हो गया है। मैं अपना यह कथन भी फिर दोहराता हूँ कि [पंजाबको] सैनिक जातियोंको, जिनपर त्याग और बलिदानका पूरा बोझ पड़ा है, सरकार उनकी सेवाओंके लिए औरोंके मुकाबले पुरस्कृत करने में प्राथमिकता दे रही है और देती रहेगी, और चूंकि तथाकथित राजनीतिक रियायतोंसे अन्य वर्गोंकी अपेक्षा ये सैनिक जातियाँ कम लाभान्वित होंगी, इसलिए हमें उनकी सेवाओंके बदले उन्हें इस ढंगसे मान्यता देने और पुरस्कृत करनेकी कोशिश करनी होगी जिसे वे उपयुक्त और वांछनीय समझें।

उनके पिछले भाषणके इस संशोधित रूपमें न केवल हमें वही अपमान दोहराया गया दीखता है, बल्कि वह और अधिक तीखे रूप में दोहराया गया दिखता है। उन्होंने उस विषयका शिकायतके लहजे में पुनरुल्लेख किया है और तथ्योंपर रंग चढ़ाकर यह सिद्ध करनेकी कोशिश की है कि पंजाबकी युद्ध-सेवाएँ विशिष्ट रूपसे महान् रही हैं। वैसे यह ऐसा तथ्य है जिसे सिद्ध करनेकी कोई जरूरत नहीं है। वे सैनिक जातियोंको अन्य वर्गोंसे अलग करके दिखाते हैं, प्रकारान्तरसे यह कहकर उनका अपमान करते हैं कि उनमें [सैनिक जातियोंमें] राजनीतिक चेतना और आकांक्षाका अभाव है, और विशेष मान्यता और पुरस्कारका लोभ देकर उन्हें समाजके अन्य वर्गोसे बिलकुल अलग करनेकी कोशिश करते हैं। हमने उनके भाषणका जो अंश उद्धृत किया है उसमें शिक्षितवर्गके प्रति उनकी तिरस्कार-भावना और उसे राजनीतिक सत्ता न प्रदान करनेकी उनकी इच्छा आसानीसे देखी जा सकती है।

लेकिन शिक्षित-वर्गके प्रति उनकी अरुचि कितनी तीव्र है, इसे शायद सबसे साफ तौरपर संवैधानिक सुधारोंके प्रश्नपर दिये उनके ज्ञापन (मेमोरेंडम) में देखा जा सकता है। यह ज्ञापन भारत सरकारके ५ मार्च, १९१९ के खरीतेके साथ ही प्रकाशित हुआ है। सम्पूर्ण भारतके लिए शिक्षित-वर्गों द्वारा पेश की गई माँगोंका उल्लेख करते हुए वे कहते हैं:

जब यह बात स्पष्ट है कि ये माँगें उस जन-साधारणकी माँगें नहीं हैं जिसकेहित दाँवपर लगे हुए हैं, बल्कि एक ऐसे अल्पसंख्यक समूहको माँगे हैं जिसे पूरी तरह निःस्वार्थ भावनासे प्रेरित नहीं माना जा सकता और जो स्वाभाविक