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न्यायालयकी मानहानि

लतकी कोई मानहानि नहीं की। लेकिन मेरा बचाव मुख्यत: इस तथ्यपर आधारित था कि अगर फिर वैसा ही अवसर उपस्थित हो और मैं उस अपराधकी पुनरावृत्ति करे बगैर न रह सकूँ तो मैं माफी भी नहीं माँग सकता था। कारण, मेरी मान्यता है कि न्यायालयके समक्षकी गई क्षमा-याचना भी तभी सच्ची होती है जब वह व्यक्तिगत क्षमा याचनाकी तरह ही हृदयसे की जाये। लेकिन साथ ही, न्यायालयके प्रति भी मेरा एक कर्तव्य था। मुख्य न्यायाधीश महोदयकी सलाह माननेसे इनकार कर देना मेरे लिए कोई आसान काम नहीं था, विशेषकर तब जब कि मेरे साथ उनका जो पत्रव्यवहार हुआ उसमें उन्होंने मेरे प्रति बहुत अधिक लिहाज दिखाया था। बात यह थी कि मैं बहुत ही असमंजसकी स्थितिमें पड़ा हुआ था। अतएव मैंने तय किया कि अपने बचावमें कुछ नहीं कहूँगा, बल्कि अपनी स्थितिको पूरी तरहसे स्पष्ट करते हुए एक वक्तव्य दे दूँगा और यह बात न्यायालयकी मर्जीपर छोड़ दूँगा कि अगर उसका निष्कर्ष प्रतिकूल हो तो वह हमें जैसी सजा देना ठीक समझे वैसी दे। यह दिखानेके लिए कि मैं न्यायालयकी मानहानि नहीं करना चाहता और न मामलेका ढिंढोरा पीटना चाहता हूँ, मैंने प्रचारको रोकनेके लिए असाधारण सावधानियां बरतीं और मेरा खयाल है कि न्यायालयको यह प्रतीति करा देनमें मुझे बहुत अधिक सफलता मिली कि मेरी अवज्ञा--अगर इसे अवज्ञा कहा जाये तो--के पीछे उद्धतताका नहीं, बल्कि विवशताका भाव था; उसमें किसी प्रकारके क्रोध या विद्वेषका भाव नहीं, पूर्ण आत्मसंयम और सम्मानका भाव था; और अगर मैंने क्षमा याचना नहीं की तो सिर्फ इसलिए नहीं की कि झूठी क्षमा-याचना मेरी अन्तरात्माके विरुद्ध होती। मेरे विचारसे यह सविनय अवज्ञाका लगभग उतना ही सर्वांगपूर्ण उदाहरण था जितनी सर्वांगपूर्ण सविनय अवज्ञा मैं करता आया हूँ। और मेरा खयाल है कि न्यायालयने भी इसका उत्तर अत्यन्त शोभनीय ढंगसे दिया और इस तथाकथित अवज्ञाके पीछे जो विनयशीलता थी उसे पहचाना। न्यायमूर्ति मार्टिनने कानूनकी स्पष्ट व्याख्या करते हुए मेरे विरुद्ध फैसला दिया है। लेकिन इस बातसे मुझे बड़ी खुशी होती है कि उसमें मेरे आचरणके औचित्यमें शंका नहीं की गई है। न्यायमूर्ति हेवर्डके निर्णयमें मेरे आचरणको अनाक्रामक--अर्थात् सविनय--प्रतिरोधका एक उदाहरण माना गया है और लगभग इसी आधारपर कोई सजा नहीं दी गई है। तो यहाँ हम सविनय अवज्ञाकी लगभग पूर्ण विजयका एक उदाहरण देखते है, और अवज्ञाका स्वरूप सविनय हो, इसके लिए यह जरूरी है कि उसमें शालीनता हो, सम्मानका भाव हो, संयम हो, उद्धतता न हो और वह किसी सुनिश्चित सिद्धान्तपर आधारित हो तथा झक या सनकमें आकर न की गई हो; और सबसे बड़ी बात यह है कि उसके पीछे घृणा या विद्वषका लेश भी न हो। मैं नम्रतापूर्वक कहूँगा कि श्री देसाई[१] और मैंने जो अवज्ञा की वह इन सारे गुणोंसे युक्त थी।

[अंग्रेजीसे]
यंग इंडिया, २४-३-१९२०
  1. महादेव देसाई।