पृष्ठ:सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय Sampurna Gandhi, vol. 17.pdf/१४८

यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
११८
सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

भाव रख सकते हैं, इसलिए हमें तलवारसे अंग्रेजोंको जीतनेका विचार सर्वथा त्याग देना चाहिए।

मैं यह नहीं कहूँगा कि हम शस्त्रबलका प्रयोग करने में एकदम असमर्थ हैं, लेकिन मैं यह अवश्य कहूँगा कि उस बलका प्रयोग करते समय हमें दम्भ, झूठ और विश्वासघातका सहारा लेना पड़ेगा, और इनका सहारा लेते हुए अनेक अन्य' झूठे साधनोंको भी अपनाना पड़ेगा। हमें उनसे लड़ने में अपनी पूरी ताकत लगा देनी पड़ेगी और तबतक लड़ते रहेंगे जबतक दोनों लड़ते-लड़ते बेदम न हो जाएँ। एक तो वे हमें शस्त्रबलसे सजग होनेका अवसर ही नहीं देंगे, यह मनुष्य जातिका स्वभाव ही है। प्राचीन कालमें भी युद्ध-कलाके अपने ज्ञानको लोग छिपाकर रखते थे। अभिमानी व्यक्ति अपने अभिमानकी रक्षाके लिए आवश्यक साधन दूसरेको सहज ही नहीं सौंप देता और शस्त्रबलका अभिमान तो होता ही है। इसलिए हम यदि शस्त्रबलकी सहायतासे एक होना चाहते हों तो वे जबतक पराजय स्वीकार नहीं कर लेते तबतक हमें जूझते रहना पड़ेगा और इस सबके बाद भी हम आपसमें शत्रु ही बने रहेंगे। क्या खिलाफतके प्रश्नका निपटारा इस तरह हो सकता है?

युद्ध करनेकी योग्यता अथवा अयोग्यताके विचारको एक ओर रखकर यदि हम केवल परिणामका ही विचार करें तो भी हम देखेंगे कि शस्त्रबलसे इस समस्याका हल नहीं निकलता। खिलाफतकी लड़ाई केवल अंग्रेजोंके विरुद्ध ही नहीं है। यह लड़ाई ईसाइयोंसे भी हैं।[१] ईसाई अच्छी तरह संगठिन है। वे युद्धकौशलमें प्रवीण हैं। उनके साथ युद्ध करनेके लिए [कमसे-कम] इस समय तो मुसलमान तैयार नहीं हैं; भारतके मुसलमान तो स्पष्ट ही तैयार नहीं है; न हिन्दू ही युद्ध में उनका मुकाबला कर सकते हैं। ऐसी स्थितिमें व्यावहारिक रूपसे यह लगभग असम्भव जान पड़ता है कि मुसलमान शस्त्रबलसे खिलाफतके प्रश्नका उचित हल प्राप्त कर सकेंगे।

लड़ाईमें उतरनेवाला व्यक्ति 'ईश्वरेच्छा बलीयसी' तो कह ही नहीं सकता। इस वाक्यका प्रयोग तो नैतिक बलसे लड़नेवाला व्यक्ति ही कर सकता है, क्योंकि नीतिमय युद्धमें पराजय नामकी वस्तु तो है ही नहीं। शुद्ध साधनोंको प्रयोगमें लानेवाला व्यक्ति भाग्यका भरोसा कर सकता है लेकिन अशुद्ध साधनोंका सहारा लेनेवालेको वैसा करनेका अधिकार ही नहीं है। जान-बूझकर कुएँ में छलाँग मारनेवाला ईश्वरकी निन्दा करे तो उसे तत्काल उसकी सजा मिल जाती है। वह अकाल मृत्युका ग्रास हो जाता है। शराब पीनेवाला यदि ऐसा-कुछ कहे कि अगर 'भगवान्की इच्छा यही है कि मैं शराब पीऊँ तो मैं शराब पिये बिना कैसे रह सकता हूँ' तो दुनिया उसपर हँसेगी। नीतिके प्रयोगमें हम भगवान्पर अटूट विश्वास रखते हैं, क्योंकि हम जानते हैं कि नीतिका परिणाम सुन्दर ही होगा। शस्त्रबलका प्रयोग करनेवाले अपने शस्त्रोंपर ठीक वैसे ही भरोसा करते हैं जिस तरह शराबी शराबके नशेपर करता है और नशा

  1. ब्रिटिश और अमरीको समाजके प्रभावशाली व्यक्तियोंने मांग की थी कि तुर्कोको कुस्तुन्तुनियोंसे निकाल दिया जाए और उन्हें चतुर्थ श्रेणीकी राज्य सत्ता बना दिया जाए।