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८४. पत्र: मथुरादास त्रिकमजीको

शनिवार
२० मार्च, १९२०

में तुमसे [यह] कहूँ कि मैं कल रात सिर्फ आधा घंटा ही सो पाया तो पत्र न लिखनेके लिए तुम मुझे क्षमा करोगे ही। क्षमा चाहता हूँ क्योंकि तुम्हारा स्मरण मुझे सदैव बना रहता है और तुम्हारे धर्म-संकटमें[१] लिखकर भाग लेना चाहते हुए भी ले नहीं पाया। मैं मंगलवारको सवेरे वहाँ पहुँचूँगा।

[गुजरातीसे]
बापुनी प्रसावी

८५. खिलाफत

खिलाफतका प्रश्न जितना गम्भीर है उतना ही हमारे लिए वह अभिनन्दनीय अवसर भी है। गम्भीर इसलिए कि उसमें आठ करोड़ मुसलमानोंकी और इस तरह समस्त भारतवर्षकी शान्ति अन्तर्हित है। अभिनन्दनीय अवसर इसलिए कि उसका हल ढूँढ़नमें यदि मुसलमानोंने समझदारीसे काम लिया तो उनकी नैतिक सत्ता बढ़ेगी एवं भारत नैतिक सत्तायुक्त साम्राज्यका उपभोग करेगा; हिन्दू-मुसलमानोंमें एकता, बल और नीति बढ़ेगी तथा अंग्रेज भी, जो हमें हीन समझते हैं, हीन समझना बन्द कर देंगे। भाईचारा बराबरवालोंके बीच ही निभ सकता है। अंग्रेज हमें बराबरीका नहीं मानते। हम स्वयं भी अपनेको उनकी अपेक्षा हीन समझते हैं। इसलिए हमें, हिन्दू-मुसलमानोंको, इस प्रश्नको सन्तोषजनक रूपसे हल करके तीनोंमें समानताकी भावना स्थापित करनी चाहिए।

तलवार व्यक्तियोंको एक बनाती है। दोनों परस्पर भैसेकी तरह खूब लड़झगड़कर थक जाते हैं और फिर एक दूसरेका अभिनन्दन करके भाईचारेके स्नेहपाशमें बँध जाते हैं। जो निर्बलता दिखाता है वह हीन ठहरता है। विरोधीके प्रति शरीर-बलका प्रयोग न कर आत्मबलके द्वारा भी श्रेष्ठता स्थापित की जा सकती है। यह श्रेष्ठता भयके कारण नहीं बल्कि प्रेमके कारण स्वीकार्य होती है और इससे दोनों एक हो जाते हैं। दूसरे व्यक्तिको अपनेसे नैतिक बलमें उच्च माननेमें हम हीन नहीं ठहरते और दूसरा नैतिक बलमें उच्च होनेका गर्व नहीं करता। अर्थात् दोनों एक दूसरेके प्रति आदर-

  1. सक्रिय-सेवाके लिए एक निश्चित क्षेत्र चुननेके सम्बन्धमें। मार्च १९२० में गांधीजीने पंजाबपर किये गये अत्याचारोंके सम्बन्धमें कांग्रेस रिपोर्टके दूसरे भागके प्रकाशनके सिलसिलेमें उन्हें कुछ कार्य सौंपा था।