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भाषण: खिलाफतपर

मुझे कभी भी स्वीकार नहीं है। जिस वफादारीकी कीमत अपनी आत्मा देकर चुकानी पड़े वह वफादारी किसी कामकी नहीं, और अगर गत युद्धके दौरान हिन्दू और मुसलमान, दोनों ही वर्गोंके भारतीय सिपाहियोंकी जानी-मानी सेवाओंके[१] बावजूद एक ब्रिटिश राजनयिक द्वारा दिया गया वचन तोड़ दिया जाता है तो फिर वह स्रोत ही नहीं रह जायेगा जिससे भारतको वफादारीकी प्रेरणा मिलती है। में आशा छोड़ रहा हूँ, ऐसी बात नहीं। लेकिन अगर आशा निराशामें परिवर्तित हो जाती है और वह अवांछित स्थिति सामने आ जाती है तो ईश्वर ही जानता है कि हमारी इस सुन्दर मातृभूमि में क्या कुछ घटित होगा। हम इतना ही जानते हैं कि फिर जबतक अन्यायका निराकरण नहीं हो जायेगा और आठ करोड़ मुसलमानोंकी भावनाओंको सन्तुष्ट नहीं कर दिया जायेगा तबतक सरकार अथवा जनताको न तो शान्ति नसीब होगी और न चैन।

बिलकुल खरा खेल

आशा है, इतनी-सी बात तो सभी समझते होंगे कि अपने मुसलमान देशभाइयोंका साथ देना हिन्दुओंके लिए आवश्यक क्यों है? अगर साधन और सिद्धि दोनों शुद्ध हैं तो हम मुसलमानोंके साथ पूरा सहयोग करें, हम दोनोंको स्थायी रूपसे एक सूत्रमें बाँधनेवाली इससे अधिक कारगर चीज तो मुझे दिखाई नहीं देती। लेकिन एक इतने पवित्र उद्देश्यकी प्राप्तिमें वचन या कर्म, किसी भी तरह हिंसाके लिए कोई गुंजाइश नहीं हो सकती और न होनी चाहिये। हमें अपने विरोधीको घृणासे नहीं, प्यारसे जीतना है। अन्यायीको प्यार करने में जो कठिनाई है, उसे में स्वीकार करता हूँ, लेकिन विजय निर्विघ्न समतल मार्गपर आगे बढ़ने में निहित नहीं है, वह तो दृढ़ता और साहसके साथ विघ्न-बाधाओंको पार करने में छिपी हुई है। और किसी न्याय्य तथा पवित्र उद्देश्यके लिए लड़ने में संकल्पकी दृढ़ता और अदम्य इच्छा-शक्ति कमसे-कम इन दो गुणोंकी अपेक्षा तो हमसे की ही जाती है। इसके अतिरिक्त, हिंसासे इस महान् उद्देश्यका सिर्फ अहित ही हो सकता है। इससे एक सनसनी, उत्तेजना फैल सकती है, लेकिन हम ऐसी उत्तेजनाओंके दौरसे गुजरकर कभी भी अपने लक्ष्यतक नहीं पहुँच पायेंगे। इसलिए इस प्रस्तावका अहिंसासे सम्बन्धित हिस्सा आत्मसंयममें निहित बुद्धिमत्ताको स्पष्ट रूपसे स्वीकार करता है और सभी वक्ताओंके लिए ऐसे असंयत या अतिरंजित भाषण करनेसे बचनेका विधान करता है, जिनका परिणाम केवल खून-खराबी, निष्ठुरतापूर्ण दमन-कार्य और सरकार तथा जनता दोनोंका अपमान ही हो सकता है। लेकिन मुसलमान बिलकुल खरा खेल खेलना चाहते हैं।

मुसलमानोंका दायित्व

वे किसी तरहका दुराव-छिपाव नहीं चाहते। इसलिए उनमें से कुछने प्रस्तावमें एक और धारा जोड़ देनेका आग्रह किया है। इसका तात्पर्य यह है कि अगर अहिंसात्मक उपाय असफल हो जाते हैं तो वे ऐसे अन्य उपायोंका सहारा लेनेके लिए स्वतंत्र हैं

  1. भारतीय सेनाको प्रशंसा करते हुए महारानी अलेक्जेंड्राने जो पत्र लिखा था उसे ३० जनवरी, १९२० को भारतके तत्कालीन प्रधान सेनापतिने कौंसिलके सभा-भवनमें पढ़कर सुनाया था।
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