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८०. पत्र: एस्थर फैरिंगको

[१९ मार्च, १९२०][१]

जीवनके तमाम दुखोंमें मैं गाता रह सकता था,
हरएक रातको मैं दिनमें बदल सकता था
अगर अहम्ने मुझे चारों तरफसे
इतना न कस रखा होता;
जो में करता हूँ या कहता हूँ
अगर वह सब उससे इतना आश्लिष्ट न होता!!
मेरा एक-एक विचार स्वार्थसे भरा है
हवामें ओछे किले बाँधता रहता है।
मैं दूसरोंके प्रति प्यारको
एक मुलम्मेकी तरह बरतता हूँ ताकि थोड़ा चमकदार दिखूँ।
मैं कल्पना करता हूँ कि सारा संसार
मेरे गुण-दोष देखने में लगा है।
वह मुक्तकण्ठसे प्रशंसा करे तो भी मुझे यही लगता है
कि वह मेरी सहज प्राप्य प्रशंसा लाचार होकर कुढ़ते हुए कर रहा है।
हाय, बड़ीसे-बड़ी गतिके साथ जीकर भी हम
अहम्की इस घृणित झाँकीको बहुत पीछे छोड़कर नहीं निकल पाते।
हम ज़रा धीमे पड़ जायें
तो वह हमारे साथ कदम मिलाकर चलता है;
और रातको जब सो जाते है,
वह हमारे सिरहाने आ बैठता है।
हे प्रभु, अपने किसी हित या स्वार्थकी बात सोचे बिना
कहीं में दूसरोंके लिए अपना जीवन चला जाने देता,
कितना अच्छा होता कि मैं अपना आपा
अपने बन्धुओंके लिए खो देता और केवल उन्हींके लिए जीता।

  1. देखिए "पत्र: एस्थर फैरिंगको", १८-३-१९२० की पाद-टिप्पणी १।