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३७९. पत्र: एडा वेस्टको

[नडियाद]
जुलाई ३१, १९१८

प्रिय देवी,

...[१]सोराबजीकी मृत्यु कितनी दुःखद है! मैं दक्षिण आफ्रिकाके बारेमें बड़ी बेफिकी महसूस करता था और आशा रखता था कि सोराबजी अब वहाँ आ गये हैं, इसलिए सब काम अच्छी तरह चलेगा। मेरी सारी आशाएँ मिट्टीमें मिल गई हैं।...[१]

पता नहीं, तुम सब फौजी भरती सम्बन्धी मेरी गतिविधिके बारेमें क्या सोचते हो। मैं अपना सारा समय इसी काममें लगा रहा हूँ। मेरी दलीलोंका सार यह: हिन्दुस्तान मारनेकी शक्ति खो बैठा है। मारनेकी शक्तिका वह स्वेच्छापूर्वक त्याग करे, इससे पहले उसके लिए यह जरूरी है कि वह मारना सीखे। सम्भव है, एकबार शक्ति प्राप्त कर लेनेके बाद वह उसका कभी त्याग न करे। ऐसा करेगा, तो वह पश्चिमके जैसा ही या ज्यादा अच्छी तरह कहें, तो सभी आधुनिक स्वतन्त्र देशों जैसा खराब बन जायेगा। आज तो वह दोनोंमें से एक भी नहीं है। प्राचीन हिन्दुस्तानके लोग युद्धकला जानते थे―उनमें हिंसा करनेकी शक्ति थी―किन्तु उन्होंने इस प्रवृत्तिको यथाशक्ति अधिक-से-अधिक कम किया और दुनियाको सिखाया कि मारनेसे न मारना ज्यादा अच्छा है। आज तो में देखता हूँ कि हरएक आदमीकी इच्छा तो मारनेकी है, परन्तु बहुतसे लोग वैसा करनेसे डरते हैं अथवा उसकी शक्ति ही नहीं रखते। परिणाम कुछ भी हो, किन्तु मेरा निश्चित विचार है कि मारनेकी शक्ति तो हिन्दुस्तानको फिरसे प्राप्त कर ही लेनी चाहिए। परिणामस्वरूप देशमें जबरदस्त खून-खराबी हो जाये और हिन्दुस्तानको उस खुन-खराबी में से गुजरना पड़े तो गुजरे। लेकिन आजकी स्थिति तो असह्य है।

तुम्हारा,
भाई

[अंग्रेजीसे]
महादेव देसाईकी हस्तलिखित डायरीसे।
सौजन्य: नारायण देसाई