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भाषण : द्वितीय गुजरात शिक्षा सम्मेलनमें

उसे छोड़ा है। बहुतोंको शायद मालूम नहीं होगा कि हमारी अदालती भाषा गुजराती ही मानी जाती है। सरकार कानून गुजरातीमें बनवाती है। दरबारोंमें पढ़े जानेवाले भाषणोंका गुजराती अनुवाद भी उसी समय पढ़ा जाता है। मुद्रा नोटोंमें अंग्रेजीके साथ गुजराती और अन्य भारतीय भाषाओंका भी उपयोग किया जाता है। जमीनकी पैमाइश करनवालेको गणित और जो अन्य विषय सीखने पड़ते हैं, वे कठिन होते हैं और यह काम यदि अंग्रेजीमें होता, तो माल-महकमेका काम बहुत खर्चीला हो जाता। इसलिए पैमाइशवालोंके लिए ऐसे पारिभाषिक शब्द बनाये गये हैं जिन्हें जानकर हमें हर्ष और आश्चर्य होता है। हममें भाषाके लिए सच्चा प्रेम हो, तो हम अपने उपलब्ध साधनोंका उपयोग तत्काल कर सकते है। वकील अपना काम गुजराती भाषामें करने लग जायें तो मुवक्किलोंका बहुत-सा रुपया बच जाये, इससे मुवक्किलोंको कानूनका जरूरी ज्ञान मिल जाये और वे अपने हक समझने लगें। दुभाषियेका खर्च भी बचे तथा भाषामें कानूनी शब्दोंका प्रचार हो। इसमें वकीलोंको थोड़ा प्रयत्न जरूर करना पड़ेगा। मुझे विश्वास है, और मेरा अनुभव है कि इससे उनके मुवक्किलोंका नुकसान नहीं होगा। यह भय करनेका कोई कारण नहीं है कि गुजरातीमें की हुई बहसका असर कम पड़ेगा। हमारे कलक्टरों वगैराके लिए गुजराती जानना अनिवार्य है; परन्तु अंग्रेजीके प्रति हमारे झूठे मोहके कारण उनकी इस जानकारीमें जंग लग जाता है।

ऐसी दलील दी गई है कि रुपया कमानेके लिए और देशहितके खयालसे अंग्रेजीका जो उपयोग किया गया उसमें दोषकी कोई बात नहीं है। यह दलील जब शिक्षाके माध्यमका विचार करते हैं तब ठीक नहीं मालूम होती। रुपया कमानेके लिए या देशहितके खयालसे कुछ लोग अंग्रेजी सीखें, तो हम उन्हें सादर प्रणाम करेंगे। परन्तु इसी कारण अंग्रेजी भाषाको शिक्षाका माध्यम तो नहीं माना जा सकता। मैं यही स्पष्ट करना चाहता हूँ कि उपर्युक्त बातोंके कारण अंग्रेजी भाषाको शिक्षाके माध्यमके रूपमें भारतमें जो स्थान मिला उसका परिणाम दुःखद हुआ है। कुछ लोग कहते हैं कि अंग्रेजी शिक्षाप्राप्त लोग ही देशभक्त हुए हैं। पिछले दो महीनोंसे तो हमें इससे बिलकुल उलटी बात नजर आ रही है। यदि अंग्रेजीका यह दावा मान भी लें तो इतना अवश्य कहा जा सकता है कि अंग्रेजी शिक्षाप्राप्त लोगोंके समान दूसरोंको मौका ही नहीं मिला। इसके सिवा अंग्रेजी शिक्षाप्राप्त लोगोंके देशप्रेमका प्रभाव जनसाधारणपर नहीं पड़ा। सच्चे देशप्रेमको तो व्यापक होना चाहिए। इनके देशप्रेममें यह गुण दिखाई नहीं देता।

कहा जाता है कि ऊपरकी दलीलें और कुछ भी हों, वे आज अव्यावहारिक हैं। "अंग्रेजीके कारण अन्य विषयोंकी कुछ भी हानि हो, तो यह दुःखकी बात है। अंग्रेजीपर अधिकार प्राप्त करनेमें ही हमारी अधिकांश मानसिक शक्ति खर्च हो जाये, यह बहुत ही अवांछनीय है। परन्तु अंग्रेजीके सम्बन्धमें हमारी जो स्थिति है, उसे ध्यान में रखते हुए मेरा यह नम्र मत है कि इस नतीजेको सहकर रास्ता निकालनेके सिवा और कोई उपाय नहीं है।" ये शब्द किसी ऐसे-वैसे लेखकके कहे हुए नहीं हैं। ये गुजरातके