१२४. पत्र : फ्लॉरेंस ए० विंटरबॉटमको
[ साबरमती ]
फरबरी २१, १९१८
मैंने तुम्हें हफ्तोंसे पत्र नहीं लिखा, पर इसका कारण तुम जानती ही हो । यहाँ के अपने कामके बारेमें कुछ लिखनेसे पहले मेरा विचार तुम्हारे पूछे हुए एक महत्त्वपूर्ण प्रश्नका उत्तर देनेका है। प्रश्नसे मालूम होता है कि तुम इस देशमें मेरे कामका बहुत बारीकीसे निरीक्षण करती रही हो । लन्दनमें मैं कहता था कि जनताके प्रति सदय, निरंकुश शासन-प्रणाली ही सर्वोत्तम राज्यतन्त्र है। तुम यह बात याद दिलाकर मुझसे पूछती हो कि मैं जो 'होमरूल' आन्दोलनमें भाग ले रहा हूँ, उसका उपर्युक्त कथनके साथ मेल कैसे बैठता है ? लन्दनमें मैंने जो कहा था, उसपर मैं अब भी कायम हूँ। किन्तु वर्तमान काल में ऐसा राज्यतन्त्र असम्भव बन गया है। हिन्दुस्तानके लिए संसदीय पद्धतिके शासन-तन्त्र में से गुजरनेके सिवा कोई उपाय नहीं, इस बातका निश्चित रूपसे अनुभव हो जानेके कारण मैं स्वाभाविक रूपमें ऐसे एक आन्दोलनका समर्थन कर रहा हूँ, जिसके द्वारा अच्छीसे अच्छी संसदीय शासन प्रणाली प्राप्त की जा सके और वर्तमान वर्णसंकर शासन प्रणालीको जो न संसदीय है और न सदय निरंकुशता मिटाया जा सके । इतना ही नहीं में इस आन्दोलनमें उसी हदतक भाग लेता हूँ, जिस हदतक में अपने उन सिद्धान्तोंको, जिन्हें मेरी समझमें उपयोगी बननेके लिए हर तन्त्रको स्वीकार करना ही पड़ेगा, लोगोंसे स्वीकार करा सकूं और उनपर अमल करा सकूँ । नटेसनने मेरे भाषणोंका एक संग्रह छापा है। मैंने उन्हें उसकी एक प्रति तुम्हारे पास भेजनेके लिए कहा है। उसमें यहाँके गुजरात राजनीतिक सम्मेलनके अध्यक्षकी हैसियतसे दिये गये मेरे भाषणका अंग्रेजी अनुवाद छपा है। मैं जो कहना चाहता हूँ, वह उसमें पूरी तरह बता दिया गया है ।
मैंने यह सोचकर कि और मामलोंके बारेमें भी लिख सकूँगा, पत्र लिखनेमें एक सप्ताहकी देर की। किन्तु अब अधिक विलम्ब करना ठीक नहीं। और बातें लिखने के लिए फिर मौका ढूँढूँगा ।
हृदयसे तुम्हारा,
मो० क० गांधी
- महादेव देसाईकी हस्तलिखित डायरीसे ।
- सौजन्य : नारायण देसाई ।