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९८. देवदास गांधीको लिखे पत्रका अंश

[बम्बई]
फरवरी २, १९१८

देवा,

जिस दिन तू मेरी गद्दी लेनेके लिए तैयार हो जायेगा, उस दिन तुझे रोकनेकी ताकत किसीमें नहीं होगी। मैं सिर्फ इतना ही चाहता हूँ कि तू मजबूत बन। यह मत समझना कि तुझमें योग्यता नहीं है; काम जैसे-जैसे सामने आयेंगे, वैसे-वैसे मार्ग सूझता जायेगा।

[बापूके आशीर्वाद]

[गुजरातीसे]
महादेवभाईनी डायरी, खण्ड ४

९९. पत्र : प्रभुदास गांधीको[१]

[बम्बई]
फरवरी २,१९१८

[चि॰ प्रभुदास,]

मैं चाहता हूँ कि तुम यह समझ सको कि आश्रममें मैं न होऊँ तो भी वहाँ बहुत कुछ है। यदि मेरा शरीर वहाँ होनेसे ही आश्रममें जीवन दिखाई देता हो, तो यह स्थिति ठीक नहीं है; क्योंकि शरीर तो आखिर नष्ट होगा ही। यदि वहाँ आत्माकी उपस्थिति मालूम होती हो तो [ठीक है क्योंकि] वह वहाँ सदा बनी हुई है। हम जिसपर प्रेम रखते हैं, उसके शरीरके प्रति अपनी आसक्ति ज्यों-ज्यों छोड़ते हैं, त्यों-त्यों उसके प्रति हमारा प्रेम विशुद्ध और विस्तीर्ण होता है। यदि हम सब आश्रममें जैसा वातावरण उत्पन्न करनेका प्रयत्न करते हैं, अपनी भावना भी उसके अनुकूल बना सकें, तो आश्रम कभी सूना न लगे; इतना ही नहीं, उसमें सामाजिक भावना जल्दी पैदा हो।

यह पत्र अनायास तुम्हारी बद्धिके बाहर लिखा गया है। जो न समझ सको, वह चि॰ छगनलालसे पूछकर समझ लेना। इसे दूसरोंको भी पढ़ने देना, क्योंकि यह पत्र

 
  1. प्रभुदासने गांधीजीको लिखा था कि देवदास काकाके बिना आश्रम अच्छा नहीं लगता और बापू, आप न हों तो आश्रम सूना और जीवन-हीन लगता है। इसके उत्तरमें ही यह पत्र लिखा गया था।