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९७. पत्र : ग॰ वा॰ मावलंकरको

[पटना]
जनवरी ३१, १९१८

[भाईश्री मावलंकर,]

मैं आपके धर्मसंकटको भलीभाँति समझ सकता हूँ। जब दमयन्तीको नल-जैसे ही कई अन्य व्यक्ति दिखाई दिये तभी तो उसके सामने भारी संकट उपस्थित हआ था। ऐसे समय की दृढ़ता ही दृढ़ता मानी जाती है। लेकिन यह आसान नहीं, इसलिए ऐसे समय भूलें हो जायें तो वे बहुधा क्षम्य होती हैं। मुझे एक लाख रुपये इकट्ठे करके लगान चुकानेमें कुछ सार तो जरूर दिखता है, किन्तु ऐसा प्रयोग सरकारके सुधारके लिए बिलकुल उपयोगी नहीं है। मुझे ऐसा नहीं लगता कि हम किसानोंकी तरफसे लगान चुकायें तो सरकार इससे तनिक भी दुखी होगी। किन्तु किसानोंके मवेशी बेचना लोहेके चने चबाने जैसा है। सत्याग्रहका उद्देश्य लोगोंको साहसी और स्वतन्त्र बनाना है, हमारी नाक रखना नहीं। डरके मारे या हमारा अविश्वास करके कायर बनकर लोग रुपया दें, तो वे कर देनेके योग्य माने जायेंगे। हमें अपनी साख रखनेके लिए और अधिक प्रयत्न करना चाहिए। यह सत्याग्रहका प्रशस्त मार्ग है। मेरे पास एक लाख रुपये हों, तो मैं घर-घर जाकर लोगोंसे कहूँ कि तुम चाहे अपने ढोर बिक जाने दो, परन्तु ऋण लेकर रुपया मत दो; चाहें बिना ब्याजके ही ऋण क्यों न मिलता हो। मैं नीलाम होनेपर एक लाख रुपये में लोगोंके ढोर ले लूँ और जो संकटके समय अडिग रहें, उन्हें समय आनेपर वापस सौंप दूँ। मैं लोगोंसे यह न कहूँ कि मैं उनके ढोर बचा लूँगा। यह ऐसा समय है कि यदि कार्य सांगोपांग सफल हो, तो सरकारको लगभग माफी माँगनी पड़ेगी।

मेरा यह सब लिखना समय बीतनेपर बुद्धिमानी दिखाने जैसा माना जायेगा, इसलिए उसका मूल्य कम है। आप समयपर जो उचित प्रतीत हो, वही करते रहें। मझे आपके कार्यकी जाँच दूरसे करनेका अलभ्य लाभ मिलता है और आपको यह अनुभव मिलता है कि इस दुनियामें किसी भी मनुष्यके बिना काम चलाया जा सकता है।

[गुजरातीसे]
महादेवभाईनी डायरी, खण्ड ४