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सम्पूर्ण गांधी वाङ‍्मय

लेखों इत्यादिका संकलन करना चाहेगा उसे इस काममें कमसे-कम छ: माह तो लगाने ही पड़ेंगे। और अगर 'धर्म नीति'[१] आदि पुस्तकें छापने बैठेंगे तो यह काम और भी लम्बा हो जायेगा। १८९०-९१ में जो लेख[२] मैंने विलायतमें लिखे थे उन्हें भी शामिल किया जा सकता है। वे कहाँ होंगे यह मुझे याद नहीं है ऐसा स्मरण आ रहा है कि मणिलाल या हरिलालने उन्हें सँभालकर रख छोड़ा है।

बापूके आशीर्वाद

महादेव देसाई द्वारा लिखित तथा गांधीजीके हस्ताक्षर-युक्त मूल गुजराती पत्र (एस॰ एन॰ ६३३४) की फोटो-नकलसे।

९३. पत्र : ग॰ वा॰ मावलंकरको

[मोतीहारी]
जनवरी २७, १९१८

भाईश्री मावलंकर,

सभा द्वारा तैयार किये गये खेड़ा सम्बन्धी प्रेस नोटके जवाबके मसविदेके बारेमें आपका पत्र मिला। जवाबका पहला भाग मुझे जितना अच्छा लगा, आखिरी उतना ही कमजोर। मैं उसे सुधारनेके झंझटमें नहीं पड़ता। खेड़ा जिलेके बाहरकी किसी संस्थाका जिलेसे कुछ सरोकार नहीं है, सरकारके इस खयालका बड़ा जोरदार जवाब दिया जा सकता है। सभामें खेड़ा जिलेसे कोई भी सदस्य न आया हो, तो भी सभाको [वहाँके और यहाँतक कि] गुजरातके किसी भी हिस्सेके सम्बन्धमें सरकारको लिखनेका अधिकार है। इतना ही नहीं बल्कि यह उसका कर्त्तव्य है। जाँच समितिके सदस्योंके नाम लेना जरूरी था। नये [जूनियर] और पुराने [सीनियर] अधिकारियोंमें जो भेद दिखाया गया है, यह अनुचित है। इससे हमने, अनजाने ही सही, यह मान लिया जान पड़ता है कि पुराने अधिकारी होते, तो वे बारीकीसे और उचित जाँच करते। हमारा दावा तो यह है कि सरकारी अधिकारी होनेके कारण ही वे अनुभवी और अपनी जिम्मेदारी समझनेवाले प्रजाजनोंकी अपेक्षा कम विश्वासपात्र है; क्योंकि वे [अधिकारी] अपने स्वार्थकी रक्षाके लिए ही लिये जाते हैं और उनकी आदत जनताकी बातको ठुकरानेकी होती है, जब कि जनताके नेताओंमें स्वार्थ नहीं होता वे तटस्थ होते हैं और जानते हैं कि उनकी भूलको दरगुजर नहीं किया जायेगा। इस कारण उनकी जाँच ज्यादा विश्वसनीय होती है। ये सारी बातें हमें अच्छी तरह बतानी चाहिए थीं। इस झगड़ेसे हम [जनताको] शिक्षित करना चाहते हैं और यह दिखाना चाहते हैं कि जैसे

 
  1. खण्ड ६ में "नीतिधर्म अथवा धर्मनीति" शीर्षकसे प्रकाशित।
  2. गांधीजीके शुरू-शुरूमें लिखे गये ये लेख सन् १८९१ वेजिटेरियन और वेजिटेरियन मेसेंजरमें प्रकाशित हुए थे। इनके लिए देखिए, खण्ड १।