९२. पत्र : छगनलाल गांधीको
मोतीहारी
पौष सुदी १४ [जनवरी २५, १९१८]
तुम्हारा पत्र मिला। चि॰ मथुरादासको सौंप देनेमें हेतु यह है कि वह उन्हें अपनी मरजीके मुताबिक प्रकाशित कराये। अंग्रेजी भाषणोंका अनुवाद अवश्य होना चाहिए। इस कामको वह कर सकता है, उसमें काफी योग्यता है, उसे यह काम पसन्द भी है। "अनुवाद करते-करते कदाचित् विशेष आत्मदर्शन कर पाऊँ"—यह लोभ भी उसके मनमें है। वह बहुत चरित्रवान् युवक है। देश-सेवा करनेका इच्छुक है। मेरे साथ लगा रहा है और उसने अपनी यह इच्छा बड़ी सुन्दर भावनासे प्रेरित होकर प्रकट की है। इस प्रकार अनेक कारणोंसे मेरे मनमें यह आया कि यह काम उसीको सौंपना ठीक होगा। प्रूफ इत्यादि पढ़नेके लिए उसके पास समय भी पर्याप्त है। किन्तु जबतक तुम उसकी सहायता नहीं करते तबतक तो वह पंखहीन पंछी-जैसा है। जब हम ये लेख उसके हवाले करेंगे तभी वह सामग्री इकट्ठी कर सकेगा। वह केवल नटेसन द्वारा प्रकाशित पुस्तकका अनुवाद कर लेनेसे सन्तुष्ट होनेवाला नहीं है। अगर तुम इसका अनुवाद करनेके कामसे मुक्त हो सको तो तुम्हारे सामने अन्य अनेक काम पड़े हैं। अब एक ही प्रश्न रह जाता है। अगर तुमने अखण्डानन्दजी आदिको वचन दे रखा है और वे तुम्हें उस बन्धनसे मुक्त न करें तो मथुरादासको निराश करना ही होगा। अगर वे इन्हें प्रकाशित करें तो भी प्रूफोंके बारे में कुछ व्यवस्था तो करनी होगी।
मैंने तुम्हारा नोट पढ़ लिया है। तुम यदि उसे बढ़ाना चाहो तो उसमें अभी काफी बढ़ानेकी गुंजाइश है। 'इंडियन ओपिनियन' में मेरे अनेक लेख ऐसे हैं जो मुझे बहुमूल्य प्रतीत हुए हैं। उनमें से चुनाव किया जा सकता है। दक्षिण आफ्रिकामें मैंने जो अनेक प्रार्थनापत्र लिखे थे उनमें बहुत-सा इतिहास आ गया है। 'खुली चिट्ठी'[१] 'हरी पुस्तिका'[२] नामक दो चौपतियों, जिनमें से पहली सन् १८९४ में लिखी गई थी और दूसरी यहाँ, में अनेक सरकारी रिपोर्टोका सारांश है। गिरमिट प्रथाके बारेमें मैंने १८९४ में जो आवेदन-पत्र[३] तैयार किया था उसमें गिरमिट प्रथाके सम्बन्धमें अनेक सरकारी खरीतोंका निचोड़ दिया हुआ है। इस तरह यदि तुम दक्षिण आफ्रिकावाला सन्दूक खोलोगे तो उसमें तुम्हें हर तरहकी बहुत-सी उपयोगी सामग्री मिलेगी। जो व्यक्ति इन
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