जायें। तिनकठियापर विचार करते हुए इस पत्रके पूर्व भागमें में बता चुका हूँ कि खुश्की करारमें किसानकी जमीनका उल्लेख क्यों नहीं किया जाना चाहिए।
चम्पारनके नील-उत्पादकोंने स्मृतिपत्र द्वारा इस खण्डमें दो संशोधन प्रस्तावित किये हैं।
पहला यह है कि धारा (१) में 'तीन' शब्द के स्थानमें 'पाँच' शब्द कर देना चाहिए। दूसरे शब्दोंमें कहें तो साटेकी अवधि केवल तीन वर्षकी नहीं, बल्कि पाँच वर्षकी कर दी जाये। सचाई यह है कि तीन वर्षकी अवधि भी रियायतके रूपमें रखी गई है। खुश्की करारकी अवधि यथासम्भव छोटी होनी चाहिए। स्मृतिपत्रमें लम्बी अवधिके साटोंकी समाप्तिके प्रस्तावपर खेद प्रकट किया गया है और इस बातको भुला दिया गया है कि समितिके सामने साक्षी देनेवाले किसी भी नील-उत्पादकने लम्बी अवधिके साटोंके समर्थन करनेका साहस नहीं किया था और उनमेंसे कुछने तो यहाँतक कहा था कि वे साटोंको लागू नहीं करते। गन्नेके साटोंके बारेमें भी गॉर्डन कैनिंगने[१] कहा था कि "जब उन्होंने गन्ना बोना प्रारम्भ किया था तब साटे किये गये थे; किन्तु वे लागू नहीं किये गये थे, इसलिए उन्हें रद समझा जाये।"
स्मृतिपत्रमें एक अन्य सुझाव यह है कि किसान इस बातको सदा बहुत ज्यादा पसंद करेंगे कि उन्हें मालकी तोल या कूतकी अपेक्षा जमीन, जिसमें निर्दिष्ट फसल बोई गई हो, के रकबेके आधारपर एक बँधी दरसे दाम दिया जाये। यह मेरे अनुभवके प्रतिकूल है। यह समझ लेना चाहिए कि इस सम्बन्धमें भी अन्य बातोंकी तरह वास्तविक उद्देश्य तिनकठियाको[२] पुनर्जीवित करना ही है।
सिलैक्ट डॉक्यूमेंट्स ऑन महात्मा गांधीज मूवमेंट इन चम्पारन
८८. पत्र : डॉ॰ कुलकर्णीको
[मोतीहारी]
जनवरी, २४, १९१८
अपना पिछला पत्र भेजने तक मैं आपका भेजा हुआ साहित्य पढ़ चुका था; किन्तु मुझे वह अपने प्रयोगोंसे विमुख करने योग्य समर्थ नहीं लगा। आप जो कहते हैं, संभव है वह सच हो और न भी हो। नमक तमाम रोगोंके लिए रामबाण हो, तब तो उसका उपयोग दुगुना या चौगुना करानेकी कोशिश करने में भी कुछ उठा नहीं रखना