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सम्पूर्ण गांधी वाङ‍्मय

अनिवार्य परिणाम यह होगा कि बाध्यताकी वही भावना, जो अबतक नील उगानेके साथ सम्बद्ध रही है और जाँच-समिति तथा सरकारकी इच्छा जिलेकी भावी शान्तिके लिए जिसे दूर कर देनेकी है, धीरे-धीरे किसानके मस्तिष्कमें घुसने लगेगी और समय आनेपर उसपर हावी हो जायेगी। यहाँ मैं इसका उल्लेख कर दूँ कि विधान सभाका मुख्य ध्येय उद्योगको समृद्ध करना या कायम रखना उतना नहीं है जितना किसानोंका कल्याण करना। यदि किसानको तिनकठिया या खुश्की प्रथाके घातक प्रभावोंसे सर्वथा मुक्त करना है तो यह आवश्यक है कि (क) उस विशेष फसलको जिसे उपलब्ध करानेका जिम्मा उसने लिया है वह कहाँसे प्राप्त करना चाहता है और कैसे प्राप्त करना चाहता है, इसके लिए उसे स्वतन्त्र छोड़ दिया जाये और उसकी जिम्मेदारी परस्पर स्वीकृत मात्राको उपलब्ध कराने तक ही सीमित रहे; (ख) खुश्की करारोंकी अवधि यथासम्भव छोटी हो, और वह जिस उत्पादनको मुहैया करता है उसकी कीमत उसे बाजार दरपर दी जाये।

स्मृतिपत्रमें खण्ड ३ (१) में सुझाये गये (ख) और (ग) संशोधन उपर्युक्त कसौटियोंपर खरे नहीं उतरते इसलिए किसानोंके दृष्टिकोणसे वे पूर्ण रूपसे अमान्य हैं।

अब मैं स्मृतिपत्रमें खण्ड ३ (१) में प्रस्तावित संशोधन (क) पर आता हूँ जिसमें तिनकठिया प्रथाको, चाहे वह पट्टकी शर्तके रूपमें हो अथवा साटे या करारोंसे अस्तित्वमें आई हो, १९२० तक बढ़ानेकी बात कही गई है। यह प्रस्ताव अत्यन्त खतरनाक है और इससे समितिकी रिपोर्टमें उल्लिखित तीन प्रमुख संस्थानों द्वारा दिया गया वचन भी भंग होता है। समिति की सिफारिश है कि इसे अक्तूबर १९१७ से समाप्त कर देना चाहिए और इसपर कार्रवाईकी जा चकी है। अब यदि चम्पारनके नील-उत्पादकोंका, जिन्होंने स्मृतिपत्रपर हस्ताक्षर किये हैं, प्रस्ताव स्वीकार कर लिया जाये तो इससे घाव फिर हरा हो जायेगा और इसके अकल्पनीय परिणाम होंगे। वास्तवमें प्रस्तावका अभिप्राय समितिकी रिपोर्ट और उसके आधारपर की गई सरकारी घोषणाके प्रभावको बेकार करना है। इस प्रथाको जारी रखनेका मुख्य कारण यह बताया जाता है कि नीलउत्पादक बीज ले चुके हैं और वे नीलकी अगली फसल बोनेकी पूरी तैयारी कर चुके हैं। किन्तु यह नहीं भूलना चाहिए कि वे खुश्कीकी प्रथाका आश्रय ले सकते हैं और वे बीज, यन्त्रों तथा अन्य सब वस्तुओंका उपयोग उसके अन्तर्गत कर सकते हैं। यह सच है कि वास्तविक खश्की प्रथासे किसानोंपर उनका प्रभुत्व उतना न रहेगा, जितना साटेसे रहता है और न उन्हें उतना भारी लाभ ही होगा जितना अबतक होता रहा है। किन्तु उन्हें न्यायकी दृष्टिसे इस तरहकी एक पक्षीय सुविधाएँ लेनेका अधिकार कभी नहीं था। हम चाहे कैसे ही सोचें इस प्रथाको जारी रखनेका औचित्य सिद्ध करना कठिन है।

रही खण्ड ३ (१) के संशोधन (ग) की बात, जिसमें इस बाध्यताको पेशगीकी वापसी तक जारी रखवानेका प्रयत्न किया गया है। मुझे यह देखकर दुःख होता है कि राजस्व निकाय भी उसके जालमें फँस गया है। क्षण-भर विचार करनेसे ही मालूम हो जायेगा कि यदि यह बाध्यता इस प्रकार जारी रखी गई तो उसे अनन्तकाल तक जारी रखना पड़ सकता है, उससे किसान परेशान किये जा सकते हैं और बहुत-से