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पत्र : राजस्व सचिवको


स्मृतिपत्रमें कहा गया है कि किसानोंका आन्दोलन 'कृत्रिम' था और उसका संगठन चम्पारनके बाहर किया गया था। तथ्य यह है कि यह केवल चम्पारन तक ही सीमित था और अभीतक चम्पारन तक ही सीमित रहा है तथा जिस आन्दोलनमें बड़ी संख्यामें जनसाधारणने भाग लिया हो उसे 'कृत्रिम आन्दोलन' कहना कठिन है। स्मृतिपत्रमें कहा गया है : "आन्दोलन व्यापक शिकायतका परिणाम कदापि नहीं था।" इसका खण्डन सरकारकी अपनी जाँचसे तथा सरकार द्वारा समितिके सामने प्रस्तुत किये गये बहुतसे कागजातसे हो जाता है।

मेरे लिए यह शोभाजनक न होगा कि मैं उन बहुत-से आक्षेपोंकी ओर ध्यान दूँ जो जाँच-समितिपर अनचित रूपसे अकारण लगाये गये हैं।

चम्पारनके जमींदारोंने अपने स्मृतिपत्रमें विधेयकके उपबन्धोंमें जो विभिन्न संशोधन प्रस्तुत किये हैं अब मैं उनपर विचार करता हूँ।

खण्ड ३ की धारा (१) का संशोधन : स्मृतिपत्रमें यह कहकर असावधानीकी हद ही कर दी गई है कि विधेयकका उद्देश्य

"बिना क्षतिपूर्तिके तथा बिना पर्याप्त कारणके उस प्रथा (तिनकठिया) को रद करना है जो १०० वर्षसे भी अधिक समयसे प्रचलित है।"


यह बात इस तथ्यके बावजूद कही गई है कि जमींदारोंने इस प्रथाको, जो अब लाभप्रद नहीं रही है, समाप्त करनेके लिए बहुत ज्यादा हर्जाना वसूल किया है और इस विधेयकका मंशा उस बेजा हर्जानेसे आंशिक रूपसे और मेरे विचारमें अपर्याप्त रूपसे राहत दिलाना है। एक जमींदारने अपने किसानोंसे तावानके रूपमें ३,२०,००० रु॰ वसूल किये और इस आयके अतिरिक्त उसे ५२,००० रु॰ वार्षिककी आय शरहबेशीसे हुई। उसने इस तथ्यका उल्लेख अखबारों तकमें बड़े गर्वसे किया है। और ऐसे जमींदार अनेक हैं।

स्मृतिपत्रमें खुश्की प्रणालीके बारेमें जो तर्क दिया गया है उस सबसे यही जाहिर होता है कि स्मृतिपत्रके दाता तिनकठियाको खुश्कीके नामसे परिवर्तित रूपमें पुनरुज्जीवित करना चाहते हैं। मेरे खयालसे खुश्की प्रणाली वह करार है जिसे किसान स्वेच्छया जमींदारके साथ करता है और जिसके अनुसार वह आपसमें तय किये गये उचित भावसे अपनी कोई खास उपज जमींदारको देता है। करारमें कोई ऐसी धारा रखनेसे जिससे किसान अपनी सारी जमीनमें या उसके एक भागमें या उसके किसी खास खेतमें, भले ही उसे उसने स्वयं चुना हो, कोई विशेष फसल बोनेके लिए बँधता हो, तो उस करारका रुप ऐच्छिक नहीं रह जाता और किसान अपनी जमीनको अपनी इच्छानुसार उपयोगमें लानेके अधिकारसे वंचित हो जाता है। इस तरहकी धारा बंगाल कृषि-अधिनियमके खण्ड १७८ (३) (ख) और खण्ड २३ की संयुक्त व्यवस्थाके विरुद्ध है। पेशगी देनेकी प्रथा अबतक प्रलोभन और जाल ही सिद्ध हुई है। खुश्की करारका किसानकी जमीनसे कोई सम्बन्ध न होना चाहिए। इसमें केवल यह शर्त होनी चाहिए कि किसान जमींदारको आपसमें तय किये गये भावसे निश्चित मात्रामें नील देगा। किसान नीलको अपनी जमीनमें पैदा कर सकता है या दूसरे किसानोंसे खरीद सकता है, अथवा किसी अन्य साधनसे प्राप्त कर सकता है। यदि एक बार उसकी जमीन करारके अन्तर्गत आ गई तो इसका