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८४. पत्र : मेसर्स लिंजियर ऐंड कम्पनी, मदुराको

मोतीहारी (बिहार)
जनवरी २१, १९१८

मेसर्स लिंजियर ऐंड कं.

मदुरा

[महोदय,]

जिन लोगोंने बुनाई छोड़ दी है, उनके पुनर्वासके लिए मैंने यह पद्धति अपनाई है कि उनको सस्तेसे-सस्ते बाजार-भावपर सूत मुहैया कराया जाये और वे जितना कपड़ा बुनें उसे ऊँचेसे-ऊँचे बाजार-भावपर नकद दामों खरीद लिया जाये। अपनी सहूलियतके अनुसार वे सूतके दाम किस्तोंमें चुका दें, और इसपर ब्याज न लिया जाये। इस पद्धतिसे वे औसतन १७) मासिक तक कमा सकते हैं। ये जुलाहे अपना सारा समय बुनाईमें नहीं देते और बहुत मोटा कपड़ा बुनते हैं। इससे ज्यादा कमानेकी उनकी इच्छा भी नहीं। इतनेमें उनकी जरूरतें पूरी हो जाती हैं। मैं जानता हूँ कि जुलाहा होशियार हो, बारीक सूत बुने और थोड़ी कारीगरी भी करे, तो २५ रुपये महीना कमा सकता है। मेरी रायमें अगर किसी जुलाहेको अपना धन्धा छोड़ना पड़ता है, तो उससे राष्ट्रको भी उतनी ही हानि होती है; और जितने जुलाहोंको हम फिरसे धन्धेमें लगा देते हैं, उतना राष्ट्रको लाभ होता है। आप कोई भी योजना शुरू करें, किन्तु मैं चाहता हूँ कि समय-समयपर खबर देकर मुझे अपने कामसे परिचित बनाये रखें।

[अंग्रेजीसे]
महादेव देसाईकी हस्तलिखित डायरीसे।
सौजन्य : नारायण देसाई

८५. पत्र : रवीन्द्रनाथ ठाकुरको

मोतीहारी
जनवरी २१, [१९१८]

प्रिय गुरुदेव,

हिन्दी साहित्य सम्मेलनके अधिवेशनमें इन्दौरमें मैं जो भाषण[१] दूँगा उसके लिए मैं निम्नलिखित प्रश्नोंपर विचारवान् नेताओंके मत एकत्र करनेका प्रयत्न कर रहा हूँ :

१. क्या हिन्दी (भाषा या उर्दू) अन्तर्प्रान्तीय व्यवहार तथा अन्य राष्ट्रीय कार्रवाइयोंके लिए उपयुक्त एकमात्र सम्भव राष्ट्रीय भाषा नहीं है?

 
  1. यह भाषण २९ मार्च, १९१८ को दिया गया था, देखिए "भाषण : हिन्दी साहित्य सम्मेलनमें", २९-३-१९१८