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सम्पूर्ण गांधी वाङ‍्मय

होंगी। वे हमारी प्रवृत्तियोंकी सहायतार्थ प्राप्त दान मानी जायेंगी। परन्तु कानूनको मेरे द्वारा की गई व्याख्यापर भरोसा मत कर बैठना। भाई कृष्णलाल तथा मावलंकर इत्यादि के साथ सलाह-मशविरा कर लेना। प्रेमरस जहाँसे भी हाथ लगे—चोरी द्वारा भी—पी लेना, वैसे ही जैसे द्वारिकाके उस ग्वालेने पिया था। जितना पियोगे उतना तुम्हारा आनन्द बढ़ता जायेगा। और तुम्हारा हेतु पूर्ण होगा। यदि [पुरानी चालके] खड्डीवाले करघे आज चलते होते और हम अपनी जरूरतका सूत खुद कात लेते होते तो आज रुईके इतनी मात्रामें उपलब्ध होते हुए भी कपड़ेकी इतनी ज्यादा मँहगाई हमें न भोगनी पड़ती। यहाँ वस्त्राभावके कारण लोग सरदीसे काँप रहे हैं। कपड़ेका महत्त्व प्रति क्षण मेरी समझमें आता जा रहा है। या तो मैं बहुत सारे कपड़े ओढ़कर बाहर सोऊँ और तब प्राणवायुका सेवन करूँ या कपड़ोंके अभावके कारण एक डिब्बे-जैसी तंग कोठरीमें पड़ा अपना दम घुटने दूँ और अपनी ही उगली कार्बोनिक गैसका फिरसे पान करता पड़ा रहूँ। ईश्वरसे मेरी प्रार्थना और तुम्हारे लिए आशीर्वाद यही है कि वह तुम्हें मेरी और तुम्हारी आकाँक्षाएँ सफल करनेकी शक्ति दे।

तुम जो-कुछ भी करो आश्रमवासियोंकी तथा राष्ट्रीय पाठशालाके शिक्षकोंकी सलाहसे करो। मैं १७ तक या ज्यादासे-ज्यादा १८ फरवरी तक वहाँ पहुँच ही जाऊँगा। परन्तु आज प्रातःकालकी मंगल घड़ीमें मुझे सूझा कि यह सब तो तुम्हें तुरन्त ही लिख डालूँ।

बापूके आशीर्वाद

मूल गुजराती पत्रकी प्रतिलिपि (सी॰ डब्ल्यू॰ ५७२६) से।
सौजन्य : राधाबेन चौधरी

८३. पत्र : जे॰ एल॰ मैफीको

मोतीहारी
जनवरी २१, १९१८

प्रिय श्री मैफी,

आपके दोनों पत्रोंके लिए आपको धन्यवाद।

मुझे भय है, मैं अपने पत्रमें[१] अपना सारा आशय, शायद, समझा नहीं पाया हूँ। सर्वश्री अली भाइयोंके जैसे नाजुक मामलोंको पत्र-व्यवहारके जरिये किसी सन्तोषजनक रीतिसे समझाया भी नहीं जा सकता। यदि आप उचित समझें तो मेरा तुरन्त दिल्ली आकर पहले आपसे बात करना शायद अच्छा रहेगा; आवश्यक हुआ तो बादमें परमश्रेष्ठसे भेंट करूँगा। मेरे सुझावपर विचार करके लिखें कि इस विषयमें आपका क्या खयाल है?

हृदयसे आपका,

[अंग्रेजीसे]
नेशनल आर्काइव्ज़ ऑफ इंडिया : होम, पोलिटिकल (डिपॉजिट) : फरवरी १९१८, सं॰ २९ से।
 
  1. देखिए "पत्र : जे॰ एल॰ मैफीको", १-२-१९१८।