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सम्पूर्ण गांधी वाङ‍्मय

उस दिन बड़े आनन्दका अनुभव किया; मैं आज वैसे आनन्दका अनुभव नहीं करता। कल उपबास छोड़ा, फलाहार किया। फल बहुत सुस्वादु थे लेकिन मैंने उन्हें स्वाद लेकर नहीं खाया, इसलिए आनन्दका अनभव तो किया, मगर वह [पिछले दिनकी अपेक्षा] कम था। मैं जानता हूँ कि आज बिना स्वादके भोजनमें स्वाद लेनेका प्रयत्न करते हुए मैंने विशेष खाया और इससे आनन्दित होनेके बदले मन दुःखी हो रहा है। इस प्रकार [एक दिनमें] गिनतीकी पाँच वस्तुएँ खानेकी हद बाँधनेपर भी, और उन्हें षट् रस स्वादोंसे रहित रूपमें बनानेपर भी जिह्वा रस लिया करती है; इससे आत्माको क्लेश होता है। यदि मै ४९ वर्षका होनेपर, संयमपूर्वक रहते हुए अपनी स्वादेन्द्रियको पूरी तरहसे नियन्त्रित नहीं कर सका तो तुम भरी-जवानीमें सब रसोंके बीच रहते हुए क्या कर सकते हो? इस त्रैराशिकका उत्तर मैं सहज ही पा सकता हूँ। मेरी तो तीव्र आकांक्षा है कि तुम और अन्य युवक जिन्होंने संयमके इस रहस्यको समझ लिया है और जो मेरे साथ उसके पालन करनेका प्रयत्न कर रहे हैं, मुझसे आगे निकल जायें। यह हो भी सकता है। मैंने पूर्ण विजय प्राप्त करने में बहुत समय गँवाया है। इससे अधिक मैं तभी लिखूँगा जब इसके योग्य हो जाऊँगा।

गहरे घावके ऊपर कभी-कभी मिट्टी असर न करे, यह सम्भव है। [घावमें कपड़ेकी] बत्ती भरनेका जो इलाज चल रहा है, उसे धीरजके साथ जारी रखना। यदि अच्छी तरहसे बत्ती न भर सको तो डॉक्टरकी मदद लेना। घावका लम्बी अवधि तक न भरना ठीक नहीं है।

तुम्हें जो प्रश्न पूछना हो, सो पूछना। अवकाश मिलनेपर उत्तर दूँगा।

बापूके आशीर्वाद

महादेव देसाई द्वारा लिखित तथा गांधीजीके हस्ताक्षरयुक्त मूल गुजराती पत्र (सी॰ डब्ल्यू॰ ५७२५) से।

सौजन्य : नारणदास गांधी।

८१. पत्र : के॰ वी॰ मेहताको

मोतीहारी
जनवरी १८, १९१८

प्रिय कल्याणभाई,

तुम्हारा पत्र मिला। मार्ग दो ही दिखाई देते हैं। इनमें से एक जो उत्तम है यह है : यह बहन अपनी विद्याका शुद्ध उपयोग करे और भाग्यके संयोगसे प्राप्त पतिको सुधारनेका प्रयत्न करे। पहले स्त्रियोंने ऐसे काम किये हैं और यदि यह बहन आज इतना साहस करे तो सम्बन्धित सभी लोग जल्दी सुखी हो सकते हैं। इसके लिए इस बहनको आत्मबोध होना चाहिए। अगर इतना ज़र्फ पास न हो, तो वह निडर होकर अपने पतिके पास जानेसे साफ इनकार कर दे। अगर पिताके घरसे उसके जबरदस्ती भेजेजानेकी सम्भावना हो, तो उसे वहाँसे चले आनेका अधिकार है और तब कोई मित्र