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पत्र : जमनादास गांधीको


क्षत्रियके हाथमें जब कोई शस्त्र शेष नहीं रह जाता तब वह हाथ-पैरसे लड़ता है और लड़ते-लड़ते मर जाता है। इसके सम्बन्धमें भी कोई निश्चित नियम नहीं सुझाया जा सकता। कभी-कभी ऐसे अवसर भी आते हैं जब शस्त्रोंके न रहनेपर क्षत्रिय हार मान लेता है और बादमें शस्त्र प्राप्त करके पुन: संग्राम-स्थलमें आ डटता है।

सत्यका शोध पश्चिममें ही हुआ है, यह कहना उचित नहीं है। सत्य और अहिंसा एक जैसे हैं; यह धारणा ठीक है। एकमें दूसरेका समावेश हो जाता है। अहिंसक असत्य बोले अथवा असत्यका आचरण करे तो उसका व्रत भंग हो जाता है। सत्याचरण करनेवाला व्यक्ति हिंसा करे तो उसका भी व्रत भंग हो जाता है। यदि कोई व्यक्ति भयके कारण उत्तर ही न दे तो वह अहिंसा व्रतको तोड़ता है।

श्रीकृष्णको हम मनुष्य न मानकर यदि एक महान् तत्त्व [शक्ति?] मानें तो सब शंकाएँ नष्ट हो जाती हैं। श्रीकृष्ण काल्पनिक व्यक्ति हैं परन्तु हिन्दुओंके हृदयमें वे इतनी दृढ़तापूर्वक विराजमान हैं कि वे, हम जितने साकार हैं, उससे कहीं अधिक साकार हैं। इसमें सन्देह नहीं कि जबतक हिन्दू धर्म जीवित है तबतक श्रीकृष्ण तो रहेंगे ही।

और भी लिख सकता हूँ परन्तु अब बस करता हूँ। [इतना जो] लिखा है वह भी कठिन परिस्थितियोंके बीचमें लिखा है।

बापूके आशीर्वाद

चि॰ मेवा,

अगर तुम साहसपूर्वक मेरे साथ अकेली रहनेके लिए आना चाहो तो आ जाना। तुम्हारा स्वास्थ्य सुधारूँगा और मुझे पुत्रीका अभाव है, उस अभावको तुम पूरा करनेका प्रयत्न करना।

बापूके आशीर्वाद

गांधीजीके स्वाक्षरोंमें मूल गुजराती पत्र (सी॰ डब्ल्यू॰ ५७२४) से।
सौजन्य : नारणदास गांधी

८०. पत्र : जमनादास गांधीको

मोतीहारी
पौष सुदी ६ [जनवरी १८, १९१८]

चि॰ जमनादास,

आज यह पत्र स्वयं न लिखकर, बोलकर लिखवा रहा हूँ। ऐसा न करूँ तो इस पत्रके बिलकुल रह जानेका भय है। महँगाईके विषयमें तुमने जो लिखा है, सो ठीक है। अत्यन्त स्वादिष्ट भोजनोंसे घिरे रहकर अस्वादका व्रत लेना निश्चय ही महान् व्रत है। विरला मनुष्य ही इसका पालन कर पाता है और विरले मनुष्यको ही मोक्ष प्राप्त होता है। हम तो फिलहाल केवल प्रयत्न ही कर सकते हैं। तुम जितना बन सके उतना इसका पालन करना। मुझे लगता है कि मैं स्वयं इस समय, इस सम्बन्धमें अधिक अधिकारसे लिखनेके अयोग्य हूँ। परसों आचार्य कृपलानी जेल गये, इसलिए हमने उपवास किया।१४—१०