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७९. पत्र : जमनादास गांधीको

मोतीहारी
पौष सुदी ५ [जनवरी १७, १९१८]

चि॰ जमनादास,

तुम्हारा पत्र मिला। यदि मेवा मेरे साथ अकेली रह सके तो उसे यहाँ बुला लेनेकी व्यवस्था की जा सकती है। डॉक्टर उसे किसी अच्छे जाने-बूझे व्यक्तिके साथ अथवा तुम्हारे साथ भेज सकते हैं। उसे यहाँ पहुँचाकर तुम वापस जा सकते हो।

यहाँ चार महिलाएँ काम कर रही है; भाई नरहरिकी पत्नी, भाई महादेवकी पत्नी, आनन्दीबाई (एक विधवा) और अवन्तिकाबाई। सबको जुदा-जुदा गाँवोंमें भेज देनेका विचार है। तीन तो अभी गाँवमें ही रहती हैं। बा भी गाँवमें है और वहाँकी स्त्रियोंमें काम कर रही है।

कील लग जानेके कारण तुमने बहुत कष्ट भोगा। अब तो बिलकुल ठीक हो गये होगे।

रामदासने सोच-समझकर दर्जीका काम सीखना शुरू किया है। वह कुछ कमाई और कुछ कटु अनुभव प्राप्त करना चाहता है। वह नाराज होकर नहीं गया है। उसके वहाँ जानेसे मुझे प्रसन्नता हुई है। इस अनुभवसे वह बनेगा। रामदास मुझसे आर्थिक सहायताकी आशा नहीं रखता; रखनी भी नहीं चाहिए।

तुमने जो प्रश्न उठाया है वह इसीलिए उठता है कि मेरे जीवनमें परिवर्तन हुए हैं। यदि मैं शुरूसे ही गरीब होता, देश-सेवाभिलाषी ही होता, तो मुझसे किसी और बातकी आशा ही नहीं की जाती। उस सूरतमें मैं अपने बच्चोंका पालन-पोषण अपने आदर्शोंके अनुसार करता और वे बड़े होनेपर कोई और मार्ग ग्रहण करना चाहते तो कर सकते थे। परन्तु [उस हालतमें] वे मुझसे आशीर्वादके सिवाय और किसी वस्तुकी अपेक्षा न रखते। यदि मैं शुरूसे ही गरीब होता तो मुझे ऐसा अधिकार होता; तब फिर [यह अधिकार मुझे] आज भी होना चाहिए। माता-पिता अपने आदर्श बदल सकते हैं और यदि वे ऐसा करें तो बच्चोंको या तो उनके रास्ते जाना चाहिए या शान्तिपूर्वक अपना अलग रास्ता चुन लेना चाहिए। इसी तरह सब लोगोंको स्वराज्यका सुख मिल सकता है।

जब मालिककी वैसी दशा हो जाये जैसी कि तुमने चित्रित की है तो नौकरको नौकरी छोड़ देनेका हक है। हाँ, छोड़ते समय वह इस बातका ध्यान रखे कि [उससे] मालिकको उस समय कोई हानि न हो। मालिक यदि पशु बन जाये तो उसके कारोबारका क्या हाल होगा, नौकर इसका कोई भी विचार किये बिना उससे अलग हो जाये। मालिकके मातहतोंका व्यवहार भी वैसा ही हो तो भी वह नौकरी छोड़ सकता है। परन्तु सब परिस्थितियोंके लिए एक ही नियम नहीं बनाया जा सकता है। स्थितिके अनुसार ही निर्णय किया जा सकता है।