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सम्पूर्ण गांधी वाङ‍्मय

सम्बन्धित प्रश्नोंसे सरोकार है, उतनी ही जानकारी थी जितनी कि मुझे। किन्तु उक्त पत्रमें तो श्री इर्विनने, लगता है, अपने अधिकार-क्षेत्रसे बाहर जाकर अशिष्टतापूर्वक उस महिलापर आक्रमण किया है, जो इस धरतीपर सबसे अधिक निर्दोष है (और मैं यह बात इस तथ्यके बावजूद कह रहा हूँ कि वह मेरी पत्नी है) और एक अत्यन्त महत्त्वपूर्ण प्रश्नकी ऐसे ढंगसे चर्चा की है, जिसके लिए उन्हें क्षमा नहीं किया जा सकता। मेरा मतलब गो-रक्षाके प्रश्नसे है। जैसा कि किसी सज्जन व्यक्तिके लिए उपयुक्त होता, उन्हें तथ्योंके बारेमें स्वयं जानकारी प्राप्त करनेकी सावधानी तो बरतनी ही चाहिए थी, किन्तु उन्होंने ऐसा नहीं किया।

मैंने गोरक्षिणी सभामें[१] जो भाषण दिया था, उसे वे मुझे लिखकर आसानीसे मँगवा ले सकते थे। मानव मानवके बीच जैसा व्यवहार होता है, उसके अनुसार उन्हें मेरे प्रति कमसे-कम इतना सौजन्य तो दिखाना ही चाहिए था। आपके संवाददाताने मुझ पर आक्षेप लगाया है कि "मैंने साहब लोगोंपर (उनके भूस्वामियोंपर), जो रोज गायको मार कर खाते हैं, मिलजुल कर हमला किया है"। इससे तो यह व्यंजित होता है कि मैं बागान-मालिकोंके काश्तकारोंकी एक अपेक्षाकृत छोटी श्रोता-मण्डलीमें भाषण दे रहा था। तथ्य यह है कि श्रोताओंमें अधिकतर लोग गैर-काश्तकार वर्गके ही थे। किन्तु जब मैं बोल रहा था तो मुझे अपने सामने उपस्थित कुछ ही हजार श्रोताओंके समूहका नहीं, बल्कि उससे बहुत बड़े श्रोतासमूहका ध्यान था। मैंने अपने उत्तरदायित्वको पूरी तरह समझते हए भाषण दिया था। मेरे विचारमें गो-रक्षाका प्रश्न उतना ही विशाल है जितना कि वह साम्राज्य, जिसमें मैं और श्री इर्विन दोनों रहते हैं। मैं जानता हूँ कि श्री इर्विन उस २४ वर्षीय नवयुवकके गौरवशाली पिता है, जिसने अपनी वीरताके कारण इस आयुमें ही कर्नलके पदका अद्वितीय सम्मान प्राप्त किया है। यदि श्री इर्विन चाहें तो गो-रक्षासे सम्बन्धित प्रश्नका अध्ययन करके उसे सुलझानेमें अपना पूरा योगदान देकर वें स्वयं इससे भी बड़ा सम्मान प्राप्त कर सकते हैं। मैं विश्वास दिलाता हूँ कि तब वे अपने समयका अधिक अच्छा उपयोग करेंगे, जिसे आज वे अखबारोंमें अपनी गलतबयानियोंको अंधाधुंध भेजते रहने में और—सिर्फ यह सोच-सोचकर एक संदिग्ध आनन्द प्राप्त करनेके लिए कि इस सबकी जिम्मेदारी मुझपर है—अपने किसानोंके खिलाफ २,२०० मुकदमे चलानेकी नितान्त अनावश्यक तैयारीमें गँवा रहे हैं।

मैंने यह बताया था कि जबतक हिन्दू लोग स्वयं ही, अपने हिन्दू मालिकोंके हाथों भयंकर दुर्व्यवहार झेलते हुए हजारों गाय-बैलोंको तिल-तिल कर मारने और कलकत्तेकी अमानवीय गोशालाओंकी गौओंसे प्राप्त दूधका पान करने में भागीदार हैं, और जबतक वे शान्तिपूर्वक भारतके यूरोपीय तथा ईसाई निवासियोंको गो-मांस उपलब्ध करानेके लिए भारतके कसाईखानोंमें हजारों गायोंका वध होते देखते रहते हैं, तबतक उन्हें अपने मुसलमान भाइयों द्वारा धार्मिक विश्वासके कारण गो-कशीपर क्षुब्ध होनेका कोई अधिकार नहीं है। मैंने यह कहा था कि गौओंके लिए पूर्ण संरक्षण प्राप्त करनेका पहला उपाय यह है कि हिन्दू लोग स्वयं हिन्दुओंके द्वारा गौओंके साथ किये जानेवाले दुर्व्यवहारसे

 
  1. देखिए, "भाषण : सच्ची गोरक्षापर", अक्तूबर ९, १९१७ के आसपास।