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पत्र : 'स्टेट्समैन' को

२ की जगह स्वीकार कर सकता हूँ; किन्तु आपने श्री कैनेडीके जिस उपबन्धपर 'ख' अंकित किया है, वह मुझे सर्वथा अमान्य है। खण्ड ३की धारा १ करारबन्द तिनकठियाको[१] रद करनेके लिए आवश्यक है। खण्ड ५ खुश्की[२] अनुबन्धोंके अतिरिक्त समितिकी अन्य सिफारिशोंको अमलमें लानेके लिए आवश्यक है; शर्त यह है कि उसमें वह संशोधन कर दिया जाये जो मैंने सरकारको लिखे गये अपने १९ दिसम्बरके पत्र में सुझाया था। मेरी स्थिति साफ है। मैं काश्तकारोंकी जमीन किन्हीं विशेष फसलोंको उगानेके लिए बन्धक रखवाना तिनकठियाको पुनः चालू करना समझूँगा। यदि मैंने श्री कैनेडीका आशय ठीक समझा है तो उनका प्रयत्न ऐसे बन्धककी व्यवस्था कराना ही है। ये दोनों दृष्टिकोण एक दूसरेसे इतने विपरीत है कि उनका समन्वय कहीं नहीं हो सकता।

हृदयसे आपका,
मो॰ क॰ गांधी

[अंग्रेजीसे]
सिलैक्ट डॉक्यूमेंट्स ऑन महात्मा गांधीज़ मूवमेंट इन चम्पारन

७५. पत्र : 'स्टेट्समैन' को[३]

मोतीहारी
जनवरी १६, १९१८

सेवामें

सम्पादक
'स्टेट्समैन'
[कलकत्ता]

महोदय,

आपके पत्रके इस मासकी १२ तारीखके अंकमें[४] श्री इर्विनका जो नवीनतम पत्र छपा है, वह मुझे आपके स्तम्भोंमें कुछ लिखनेके लिए मजबूर करता है। जबतक आपके संवाददाताने अपनेको उन मामलोंतक सीमित रखा था जो सीधे उन्हींको प्रभावित करते थे तबतक उनकी गलतबयानियोंसे कोई खास फर्क नहीं पड़ता था, क्योंकि वास्तविक तथ्योंकी सरकारको तथा उन लोगोंको भी, जिनका चम्पारनमें भूमि-व्यवस्थासे

 
  1. बिहारके नीलकी खेतीके जिलोंमें प्रचलित प्रथा, जिसके अनुसार जमींदार अपने काश्तकारोंको मजबूर करते थे कि वे अपनी जमीनमें बीघा पीछे तीन बिस्वे नील, जई या गन्ना उगायें और जिसकी मजदूरी वे बहुत कम देते थे।
  2. बिना शर्त नीलकी खेती करवानेकी प्रथा।
  3. यह "श्री इर्विनको श्री गांधीका उत्तर" शीर्षकसे प्रकाशित हुआ था।
  4. इर्विनका ८ जनवरीका पत्र वास्तवमें ११ जनवरीको प्रकाशित हुआ था; देखिए परिशिष्ट ९।