नहीं होते; लेकिन मैं ऐसा माता हूँ कि वे धीरे-धीरे लागू होने लगेंगे। यदि हम किसी वस्तुको प्राप्त न कर पायें तो उसका कारण यही होता है कि हम जिस व्यक्तिसे उस वस्तुकी माँग करते हैं उसके और हमारे बीच विश्वासकी भूमिका नहीं होती। मैंने जब चम्पारनमें काम शुरू किया तो बागान-मालिकों और अधिकारियोंको लगा कि मैं उनसे संघर्ष करने जा रहा हूँ, पर अन्तमें दोनोंको जब यह विश्वास हो गया कि मेरा ऐसा कोई इरादा नहीं है और मैं तो केवल इतना चाहता हूँ कि बागान-मालिक मजदूर-जनताके साथ न्याय किया करें, तो इच्छित बातके हो जाने में कोई मुश्किल नहीं रही।
चम्पारनका यह कार्य तो सफल हो गया। पर दूसरा कार्य, जो कहीं अधिक कष्टसाध्य है, अभी बाकी है। वह मनुष्य जो गुलामीसे मुक्त होकर स्वतन्त्रता पा जाता है, उसे यदि उचित शिक्षा न मिल पाये तो वह प्राय: स्वतन्त्रताका दुरुपयोग करने लगता है। चम्पारनकी जनता एक प्रकारका स्थानिक स्वराज्य तो पा ही चुकी है। लेकिन अब जो प्रश्न रह जाता है वह यह है कि इस स्वराज्यका संचालन किस प्रकार किया जाये। इसके लिए बाबू ब्रजकिशोर[१] तथा दूसरे भाइयोंने—जो मेरे साथ काम करते हैं, यह तय किया है कि स्थान-स्थानपर पाठशालाएँ खोली जायें और लोगोंको सामान्य ज्ञान तथा आरोग्यके नियमोंका विशेष ज्ञान कराया जाये। कल्पना यह है कि बालक-बालिकाओंको अक्षर-ज्ञान और साफ-सुथरा रह सकने योग्य आरोग्यका ज्ञान कराया जाये तथा बड़ी उम्रके लोगोंको ग्राम स्वास्थ्यकी, रास्तों, इस्तेमालमें न आनेवाले कुओं और पाखानोंकी सफाईकी शिक्षा दी जाये।
इसी हेतुको ध्यानमें रखकर मंगलवारके शुभ दिन ढाका नामक गाँवमें एक पाठशाला खोली जायेगी। इस कार्यके लिए स्वयंसेवकोंकी बड़ी आवश्यकता है। शिक्षित बन्धुओंमें जिनकी इच्छा हो, वे इसके लिए आगे आयें। उनकी परीक्षा ली जायेगी और जो योग्य साबित होंगे उन्हें यह काम दिया जायेगा।
तीसरी बात यह है। हिन्दू-मुसलमानोंके बीच जो गाँठ पड़ गई है, उनके दिलमें जो कड़वाहट पैदा हो गयी है—इसे कैसे दूर किया जाये? इन दोनों कौमोंके बीच मित्रभावकी स्थापना करना ही मेरे जीवनका कार्य है। २५ वर्षोंसे मैं इसके उपाय खोजता आ रहा हूँ। मैं मुसलमान भाइयोंके बीच रहा। शाहाबादका मामला[२] सुनकर मेरा दिल फट जाता है; और मेरा दिल रो उठता है कि यदि मुझसे बन पड़ता तो मैं शाहाबाद जाकर अपने मुसलमान भाइयोंसे मिलता, उनसे सलाह-मशविरा करता। लेकिन
- ↑ बाबू ब्रजकिशोर प्रसाद; दरभंगाके एक प्रमुख वकील, उग्र राष्ट्रवादी और गांधीजीके सक्रिय सहयोगी; जिन्होंने सन् १९१७ में चम्पारन सत्याग्रहमें उनके साथ काम किया था। सन् १९२० में वकालत छोड़कर आप असहयोग आन्दोलनमें शरीक हो गये थे।
- ↑ सन् १९१७ के सितम्बर-अक्तूबरमें बकरीदके अवसरपर इस जिलेमें हिन्दू-मुसलमानोंके बीच दंगा हो गया था। इसका विषैला प्रभाव देशके दूसरे भागों में भी हुआ था।